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________________ को सुन्दर फ्रेम में मढ़वा कर भव्य दीवानखानों में टांगा जाता है वैसे ही भगवान की प्रतिमाओं की रक्षा के लिए श्री जिन मन्दिर तथा उसके गर्भद्वार पर ताला लगाया जावे या रक्षा हेतु कोई अन्य प्रबन्ध किया जावे तो इसमें क्या दोष है? यदि ऐसा नहीं किया जावे तो दृष्ट लोग आशातना आदि करते हैं और उसका दोष रक्षा नहीं करने वाले को लगता है। प्रश्न 30 - क्या मूर्ति में वीतराग के गुण हैं? उत्तर - एक अपेक्षा से हैं तथा एक अपेक्षा से नहीं भी है। पूजक व्यक्ति उसमें वीतराग भाव का आरोपण कर पूजा करता हैं, तब वह मूर्ति वीतराग समान ही बनती है तथा वीतराग की भक्ति जितना ही फल देती है। इस दृष्टि से श्री जिनमूर्ति श्री जिनवर के समान है। दुष्ट परिणाम वाले व्यक्ति को मूर्ति के दर्शन से कोई लाभ नहीं होता, परन्तु इसके विपरीत अशभ परिणाम से कर्मबन्धन होता है। इसके बजाय हम यह कह सकते हैं कि मूर्ति वीतराग के समान नहीं है पर इससे इसकी तारक शक्ति चली नहीं जाती। शक्कर मीठी होते हुए भी गधे को नहीं रुचती है, बल्कि नुकसान करती है, पर इससे शक्कर का स्वाद नष्ट नहीं होता। वैसे ही मूर्ति भी मिथ्यादृष्टि जीवों को रुचिकर नहीं होती, पर इससे उसकी मोक्षदायकता चली नहीं जाती। प्रश्न 31 - मूर्ति यदि जिनराज तुल्य है तो इस पंचम आरे में तीर्थंकर का विरह क्यों कहा गया है? उत्तर - भरतक्षेत्र में पंचम आरे में तीर्थंकर का विरह बताया है, यह भाव तीर्थंकर की अपेक्षा से कहा गया है न कि स्थापना अरिहन्त की अपेक्षा से। किसी गाँव में साधु न हो पर उनकी तस्वीर हो तो भी ऐसा कहा जाता है कि, 'इस गाँव में आजकल कोई साधु नहीं विचरते' तो वह विरह भाव साधु का ही समझा जाता है। कोई ऐसा नहीं मानता कि 'इस गाँव में साधु की तस्वीर का भी अभाव है।' प्रश्न 32 - एक क्षेत्र में दो तीर्थकर नहीं होते हैं, प एक ही भवन में अनेक मूर्तियों को क्यों एकत्र किया जाता है? उत्तर - यह विषय भी स्थापना सम्बन्धी है और जो निषेध है वह भाव अरिहन्त के सम्बन्ध में है। जैसे सभी तीर्थंकर सिद्धगति को प्राप्त होते हैं तब अनन्ती चौबीसी के तीर्थंकर एक ही क्षेत्र (द्रव्य-निक्षेप से) में रहते हैं वैसे (स्थापना-निक्षेप से) एक ही मंदिर में एक सौठ आठ अथवा उससे भी अधिक प्रतिमाओं के रहने में कोई बाधा नहीं है। स्थापना को भी एक साथ रखने में यदि कोई बाधा होती तो श्री जम्बूद्वीप में सैकड़ों पर्वत, नदी, गुफाएँ आदि भिन्न-भिन्न स्थानों पर हैं, पर इनको एक ही नक्शे में एकत्र कर लोगों को कैसे समझाया जाता है ? सूत्रों में सभी तीर्थंकरों के नाम की स्थापना जैसे एक ही कागज पर की जाती है तथा नाम अरिहन्त एवं द्रव्य अरिहन्त को भी एक साथ रहने में जैसे - 94.
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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