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उपदेश-प्रासाद - भाग १ .
इस श्लोक का भावार्थ भर्तृहरि राजा के वृत्तांत से जाने और वह यह है
अवन्ती में भर्तृहरि राजा था । वहाँ पर निर्धनी मुकुन्द ब्राह्मण ने लक्ष्मी के लिए हरसिद्धि की आराधना की । उसके अल्प पुण्य को जानकर संतुष्ट हुई देवता ने उसे अमरफल दिया । उसे कहा कि- तुम इसे ग्रहण करो । इस फल के भक्षण से बहुत जीया जाता है और नीरोगता होती है । तुम्हारा भाग्य नहीं है, इसलिए इस फल को दिया है। वह ब्राह्मण उसे घर ले जाकर खाने की इच्छावाला हुआ सोचने लगा कि- यह फल जो जगत् का आधार है, उसे दिया जाय । इस प्रकार से विचारकर राजा को दिया । उसके प्रभाव को कहकर राजा ने उसे स्व पट्टदेवी को दिया । उसने स्व उपपति महावत को उसके प्रभाव के कथन पूर्वक ही दिया । महावत ने सोचा- मुझे बहुत जीवन से क्या ? इसलिए मैं इसे अभीष्ट वेश्या को देता हूँ। पश्चात् उसने वेश्या को वह फल दिया । वेश्या ने सोचा- मुझे इसके भक्षण से क्या ? मैं प्रजानाथ को देती हूँ। इस प्रकार से विचारकर भर्तृहरि को दिया। उस फल को पहचान कर भर्तृहरि ने पूछा- यह कहाँ से प्राप्त हुआ है ? वेश्या ने राज-दंड के भय से सत्य कहा । पश्चात् महावत से पूछा । उसने भी ताड़न के भय से रानी का नाम कहा । राजा ने उसे पूछा । भय से विह्वल हुई वह कुछ-भी उत्तर देने में समर्थ नहीं हुई । उसे अवध्य मानकर और संसार की असारता को धारण करते हुए कहा
जिसका मैं सतत चिन्तन करता हूँ, वह मुझ पर विरक्त है और वह भी अन्य जन को चाहती है तथा वह जन भी अन्य में आसक्त है । हमारे लिए कोई अन्य ही स्त्री परिताप कर रही है । उस स्त्री को, उस पुरुष को, काम को, इस स्त्री को और मुझको धिक्कार है।
संमोहित करती है, मद से युक्त करती है, विडंबित करती है,