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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४३३ परंतु हे मृगाक्षी ! मेरे मन को दुःख देनेवाले विषय में रुचि नहीं है, क्योंकि जैसे कहा है कि विष का और विषयों का बड़ा ही अंतर देखा जाय । उपभोग किया हुआ विष मारता है, विषय तो स्मरण से भी मारते हैं। इसलिए हे सुंदरी ! मुझे नित्य ही आजन्म पर्यंत भीष्म के समान तीनों प्रकार से गंगा के समान पवित्र शील हो । परंतु हम दोनों यह स्वरूप माता-पिता आदि को भी ज्ञापन न करें । यदि कोई इस वृत्तांत को जानेगा, तो अवश्य ही हम दोनों दीक्षा ग्रहण करेंगें, इस प्रकार से निश्चय कर वें दोनों दंपती स्व जीवन के समान शील को धारण करने लगे। रात्रि में एक ही शयन में सोये हुए उन दोनों को कोई काम का उन्माद नहीं हुआ । सदा रात्रि में शील गुण का ही वर्णन करते थे । इस प्रकार से भाव चारित्र के पात्र उन दोनों का समय व्यतीत हो रहा था। इस अवसर पर चंपा में विमल नामक केवली साधु ने समवसरण किया। उनकी देशना को सुनकर जिनदास श्रेष्ठी ने निज अभिग्रह कहा कि- हे भगवन् ! मैं चौरासी हजार साधुओं को पारणा कराऊँ । मेरा यह मनोरथ कब सफल होगा ? इस प्रकार से सुनकर केवली ने कहा कि- एक ही साथ में इतने मुमुक्षुओं का संगम कैसे होगा ? दैव से कहीं पर इतने साधुओं के मिल जाने पर भी आकाश के पुष्प के समान शुद्ध अन्न-पान की सामग्री दुर्लभ ही होगी । इसलिए तुम कच्छ देश में स्थित विजया-विजय श्रेष्ठी दंपती की भोजन आदि से भक्ति करो । उससे बहुत पुण्य होगा, क्योंकि चौरासी हजार साधुओं के पारणे से जो पुण्य होता है, वह कृष्ण और शुक्ल पक्षों में शील का पालन करनेवाले प्रिया और पति को भोजन से भक्ति करने से होता है ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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