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उपदेश-प्रासाद
४३२ नग्न और प्रेत के समान आविष्ट हुआ शब्द करती हुई उसे आलिंगन कर सर्वांग से गाढ आयासित हुआ वह सुखी क्रीड़ा करता है। .
पक्षी और पशु आदि भी विषय का सेवन करते है । इसमें कौन-सा तत्त्व है ? तथा हे सुभ्रू ! देव के भवों में बहुत वर्षों तक अनगिनत विषयों को भोगें हैं। जैसे कि लोक प्रकाश में कहा गया है
ऊर्ध्व देवों के विषयों की स्थिति दो हजार वर्ष होती है और ज्योतिष, वाण और भवण वासीयों को पाँच सो-पाँच सो से हीन होती है।
हे कमल समान नेत्रोंवाली ! अन्य यह भी है कि संसार में जो माला, चंदन, स्त्री आदि पुद्गलों से उत्पन्न, विनाशी और पर संयोग से उत्पन्न सौख्य है वह मन के संकल्प से उत्पन्न होने के कारण से और औपचारिकत्व के कारण से तत्त्व से दुःख स्वरूप ही है, क्योंकि श्रीमद् जिनभद्र ने कहा है कि
दुःख के प्रतिकार से चिकित्सा के समान विषय सुख दुःख ही है और वह उपचार से है । तथ्य के बिना उपचार नहीं होता है।
विषय सुख दुःख ही है, दुःख का प्रतिकार-क्वाथ का पान, डंभ दान आदि चिकित्सा के समान है और वह औपचारिक सौख्य लेश-मात्र में सत्य है, पारमार्थिक सौख्य तो वस्तु के बिना नहीं होता है । आत्मीय आनन्द का रोधन करनेवाले और शाता-अशाता कर्म से उत्पन्न हुए को कौन उसे सौख्य के रूप में सूचन करता है ? कहा भी है कि
जिस कारण से शाता-अशाता दुःख है और उसके विरह में सुख है, उससे देह और इंद्रियों का सुख दुःख है और देह तथा इंद्रियों के अभाव में सुख है।