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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ नव्यासीवाँ व्याख्यान अब इस व्रत के भंग में सभी व्रतों का भी भंग होता है, इसे इस " ४२६ प्रकार से कहते है - चतुर्थ व्रत के भंग में शेष व्रतों की भी लीला से भंगता को कहते हैं, उससे दुःशीलता का त्याग करें । चतुर्थ व्रत के भंग में शेष चारों-प्राणातिपात आदि का भी, निश्चय ही लीला से अक्लेश से, भंगता को जिनेश्वर कहते है। वह जिस प्रकार से है - स्त्री की योनि में एक अथवा दो अथवा तीन अथवा उत्कृष्ट से लाख पृथक्त्व पर्यंत बेइंद्रियादि जो जीव उत्पन्न होते है, पुरुष के साथ संयोग में बाँस के दृष्टांत से और तपाये हुए लोह की सली के न्याय से उन जीवों का विनाश होता हैं। एक पुरुष के द्वारा भोगी हुई नारी के गर्भ में एक ही लीला में उत्कृष्ट से नव लाख पंचेंद्रिय मनुष्य उत्पन्न होते है । नव लाख मनुष्यों के मध्य में एक अथवा दो की समाप्ति होती है, पुनः शेष जीव तो ऐसे ही वही पर विलय को प्राप्त होते हैं । समाप्ति अर्थात् पूर्णता है, इस प्रकार से शास्त्र के वाक्य से यहाँ शील के भंग में प्रथम व्रत भग्न ही हुआ है तथा द्वितीय व्रत भी । स्त्रियों को सत्यवादीत्व नहीं है, जैसे कि वणिक, वेश्या, चोर, द्यूतकारक, पर- स्त्री गमनकारी, द्वारपाल और कौल - यें सातों ही असत्य के मंदिर हैं । तथा तृतीय व्रत के भंग को भी जाने । पिता आदि की अनुज्ञा से विवाहित की हुई स्त्रियों में भंग कैसे हो ? उत्तर कहते है कि - अब्रह्म के सेवन में तीर्थंकर, स्वामी प्रमुख अदत्त भी होता है । वहाँ जिनेन्द्रों
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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