________________
४२८
उपदेश-प्रासाद - भाग १ के पास में दीक्षा लेकर सौधर्म में गया । दो सागरोपम की आयुवाला वह च्यवकर महाविदेह में सिद्ध होगा।
जैसे कि छटे अंग में कहा गया है इस कथा में यह तत्त्व है
भोगों की अपेक्षा करते हुए घोर संसार रूपी सागर में गिरते हैं। भोगों से निरवकांक्षावालें संसार रूपी अटवी को तैरते है । शैलक यक्ष के पीठ पर अध्यारोहण के समान ही दुःखित जीवों का पार गमन है, समुद्र के समान भव की परंपरा और स्व गृह में गमन के समान मोक्ष में गमन है । जैसे देवी के मोह से शैलक की पीठ से च्युत हुआ जिनरक्षित मरण को प्राप्त हुआ वैसे ही विषयों के मोह से भव रूपी समुद्र में, चारित्र से च्युत हुए के समान ही गिरता है । जैसे ही देवी से अक्षुब्ध हुए जिनपाल ने निज स्थान और श्रेष्ठ सुख को प्राप्त किया था, वैसे ही विषयों से अक्षुब्ध शुद्ध जीव मोक्ष को प्राप्त करते
हैं।
इस प्रकार से उपनय जानें।
जिनरक्षित रत्ना नामक देवी में दृढ़ काम को वहन करता हुआ दोनों प्रकारों से समुद्र में गिरा । भोगों में अस्पृहता से युक्त जिनपाल परमात्मा की सभा में लक्ष्मीयों का पात्र हुआ।
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में अट्ठासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।