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________________ ४२६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ करना चाहिए । तथा इन्द्रिय-अवलोकन में और च शब्द से भाषण आदि में सर्वत्र दृष्टि को हटाने आदि रूप यतना करनी चाहिए । बहुत कहने से क्या ? जो प्राणी उस ब्रह्म व्रत की रक्षा करतें हैं- पालन करते है, उनकी कीर्ति विश्व में भी नहीं समाती है, यह तात्पर्य है । इस विषय में जिनपाल का उदाहरण है और वह यह है चंपा नगरी में माकन्दी श्रेष्ठी था । उसकी पत्नी भद्रा थी। जिनपाल और जिनरक्षक उन दोनों के दो पुत्र थे । उन दोनों ने समुद्र में ग्यारह यात्राएँ की थी और विघ्न रहित द्रव्य का उपार्जन किया । पुनः आग्रह से निज माता-पिता को अनुज्ञापन कर और जहाज को भरकर चलें । समुद्री वायु से पर्वत से टकराकर जहाज भग्न हुआ । काष्ठ के तख्ते से वें दोनों रत्नद्वीप में गये । उन दोनों ने वहाँ वन की वापी में क्रीड़ा की । इस ओर उस द्वीप की वासिनी देवी ने आकर उन दोनों से कहा कि- मेरे साथ भोग भोगो अन्यथा इस तलवार से सिर का छेदन करूँगी । दोनों ने उसे स्वीकार किया । शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप कर और अशुभोंको छोड़कर देवी उन दोनों के साथ भोगों को भोगने लगी। एक दिन इक्कीस बार तक समुद्र से काष्ठादि को निकालकर निर्मल करना चाहिए, इस प्रकार से इन्द्र का आदेश आने पर देवी ने उन दोनों को इस प्रकार से शिक्षा दी कि- तुम दोनों दक्षिण वन में मत जाना क्योंकि वहाँ पर दृष्टि विष सर्प है । तुम दोनों इस महल में रहो अन्यथा अन्य वन में चले जाओ, इस प्रकार से कहकर देवी चली गयी । उन दोनों ने सोचा कि- यहाँ निषेध करने में क्या कारण है ? इस प्रकार से सोचकर वें दोनों उस वन में गये । उन्होंने बहुत हड्डियों का समूह देखा । पुनः आगे शूलि पर स्थित एक पुरुष को देखकर उन दोनों ने पूछा- तुम कौन हो ? पुरुष ने कहा कि- मैं
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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