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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४२५ अट्ठासीवा व्याख्यान अब ब्रह्मचर्य के ऐहिक गुण को कहते है कि जो प्राणी ज्ञानादि सर्व धर्मों का जीवन ऐसे शील का ही रक्षण करते हैं, उनकी कीर्ति लोक में नहीं समाती है। ज्ञान-मति आदि गुण है, वह आदि है जिनका ऐसे वे दर्शन, चारित्र आदि सर्व धर्म हैं, उनका जीवन-प्राणभूत, शील हीब्रह्मचर्य ही है। उसके बिना सभी धर्म व्यर्थ हैं। क्योंकि पर आगम में भी कहा हुआ है कि हे युधिष्ठिर ! एक रात्रि भी स्थित ब्रह्मचारी की जो गति होती है, वह हजार यज्ञों से नहीं की जा सकती है। जिन-अंग में तो ब्रह्मव्रती को स्त्रियों के अंग को विकार सहित देखना आदि भी नहीं कल्पता है, क्योंकि आद्य पञ्चाशक में कहा गया है छन्नंग के दर्शन में और स्पर्शन में तथा गो मूत्र के ग्रहण में, कुस्वप्न में और इंद्रियों के अवलोकन में सर्वत्र यतना करें। ___ स्त्रियों के छन्नांग-गुप्त या ढंके हुए अंग राग के जनक है, उन्हें पास से नहीं देखना चाहिए, अथवा किसी भी प्रकार से उन्हें देखने से अथवा स्पर्श होने पर राग की बुद्धि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चक्षु को गोचर में आये रूप को नहीं देखना शक्य नहीं है, किन्तु वहाँ जो राग-द्वेष है, पंडित उनका वर्जन करे । गाय की योनि के मर्दन से गो-मूत्र का ग्रहण भी नहीं करना चाहिए, किंतु जब वह स्वयं ही मूत्र करती है तब लेना चाहिए । पुनः आगाढ़ कार्य में योनि के मर्दन में भी आसक्ति नहीं करनी चाहिए । कुस्वप्न में- स्त्री के भोग में तत्काल ही उठकर ईरियावहि प्रतिक्रमण पूर्वक ही एक सो और आठ श्वास के प्रमाणवाले कायोत्सर्ग को
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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