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उपदेश-प्रासाद - भाग १
४०५ शीघ्र से उसके समीप में गया । वह तट के निकटवर्ती कीचड़ में वैसे मग्न हुआ, जिससे कि न तीर और न ही नीर था, विधि के वश से उसे दोनों भी विनष्ट हुए।
अन्य यह भी है कि__मणि, मंत्र और औषधों से सर्प के द्वारा डंसे हुए लोग स्वस्थ देखे गये हैं। पुनः राजाओं के द्वारा और दृष्टि-विष सर्पो के द्वारा इंसा हुआ जन उठ खड़ा होता नहीं देखा गया ।
राजा की आज्ञा से उस चोर को नगर के चौराहें में घूमाकर सुभटों ने उसे शूलिका के ऊपर चढाया। तत्पश्चात् राजा के सुभट गुप्त रीति से देखने लगे कि- कौन पुरुष इसके साथ वार्ता करता है ? इसके समीप में सर्व नगरवासीयों के हरण कीये हुए धन को ढूँढना चाहिए, इस प्रकार की बुद्धि से वें स्थित हुए थे । इस प्रस्ताव में जिनदत्तश्रेष्ठी उस मार्ग में आया । उसने आक्रन्दन करते हुए चोर से कहा कि
यहाँ चोरी रूपी पाप वृक्ष का फल, वध, बन्ध आदि है और परलोक में नरक-वेदना रूपी फल हैं ।
जो कर्म उपार्जन किया गया है, वह अन्यथा नहीं होता । तुम प्रान्त में भी मन में अदत्तादान आदि व्रतों का अंगीकार करो । चोर ने कहा कि
शृगालों ने दोनों पैरों का भक्षण किया है और कौवों ने सिर को जर्जरित किया है, इस प्रकार से पूर्व कर्म आया है, अब मैं क्या करूँ ?
यहाँ तुम मुझे शीघ्र से पानी पीलाओ । राज-विरुद्ध जानकर श्रेष्ठी मौन रहा । पुनः भी दीन आलापों से वैसा आलापित किया गया जिससे कि साहस को धारण कर श्रेष्ठी ने कहा कि- हे भद्र ! तुम भव में कीये हुए पापों की आलोचना करो । उसके द्वारा भी स्व-पाप