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________________ ४०४ उपदेश-प्रासाद - भाग १ गुसियों में मनो-गुप्ति -यें चारों ही दुःख से जीते जाते हैं। बहुत दिनों के बाद राजा कृश अंगवाला हुआ । मंत्री ने राजा से कहा कि- हे स्वामी ! क्या आपको अन्न के ऊपर अरुचि हुई है ? क्योंकि चन्द्र से हीन रात्रि के समान ही अन्न से हीन शरीर, नयन से हीन मुख, न्याय से हीन राज्य, लवण से हीन भोजन और धर्म से हीन बहुत जीवन नहीं शोभता है। अथवा कोई चिन्ता है ? क्योंकि सदा भी शरीर में रही हुई चिन्ता शरीर का दहन करती है और दुष्ट पिशाच के समान नित्य ही रुधिर और मांस का भक्षण करती है। राजा ने कहा कि- हे मंत्री ! यह बड़ा आश्चर्य है । मैं प्रति-दिन द्विगुण भोजन करता हूँ। कोई अञ्जन सिद्ध पुरुष मेरे साथ भोजन कर रहा है, उससे नारक के समान उदर-अग्नि शांत नहीं हो रही है । यह सुनकर मंत्री ने रसोई-गृह के स्थान में सर्वत्र सूखे हुए आक के फूल डालें । उसके पाँव के आघात से फूल चूर्ण हुए देखकर और राजा का कहा निश्चय कर द्वितीय दिन चोर के दोनों पैरों से आक के पुष्पों को चूर्ण कीये जाते हुए मार्ग से चोर को जानकर और द्वार पर अत्यंत दृढ़ अर्गल देकर पूर्व में गुप्त कीये हुए तीव्र धूम को प्रसारित किया । धूम से व्याकुल हुए चोर के अश्रु पात से नयनों में स्थित अञ्जन गला । सभी ने उसे प्रत्यक्ष देखा और बाँधकर उसे राजा के आगे ले गएँ । चोर ने विचार किया कि- विधि-वशात् मुझे भोजन और गृह दोनों भी नष्ट हुए है, क्योंकि ग्रीष्म काल में दाह से पीड़ित, अत्यंत चंचल हुआ और प्यास से आकुलित अंगवाला हुआ श्रेष्ठ हाथी सरोवर को पूर्ण देखकर
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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