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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३७३ कहनेवाले को । चतुर्थ गर्हा नामक है, वह तीन प्रकार से है । एक सावध व्यापार प्रवर्तन, जैसे कि - तुम खेत को खेड़ो इत्यादि । द्वितीय अप्रियकारण जैसे कि-काणे को काणा कहनेवाले को । तृतीय आक्रोश रूप जैसे कि- अरे निर्मुख ! इत्यादि असत्य नरकादि दुःखों का निमित्त है । जैसे कि योगशास्त्र में
मृषावाद के प्रसाद से प्राणी निगोद में, तिर्यंच में तथा नरक में उत्पन्न होते है । पर-स्त्री गमन करनेवाले की और चौरों की तो कोई प्रतिक्रिया है । असत्यवादी पुरुष का प्रतिकार नहीं है। '
इसलिए उस व्रत को ग्रहण करना चाहिए जिससे कि सुखसंपत्ति हो ! इस विषय में श्रीकान्त श्रेष्ठी का उदाहरण है
राजगृह में श्रीकान्त श्रेष्ठी दिन में व्यापार और रात में चोरी करता था। एक बार बारह व्रत और चौदह नियमधारी जिनदास श्रावक
आया । श्रीकान्त ने भोजन के लिए निमंत्रण किया । उसने कहा किजिसकी वृत्ति मैं नहीं जानता हूँ, उसके घर पर मैं भोजन नहीं करता। उसने कहा कि- मैं शुद्ध व्यापार करता हूँ। जिनदास ने कहा कि- तुम्हारें गृह में व्यय अनुसारी व्यापार नहीं है, उससे तुम सत्य कहो । पर गुह्य को अन्यत्र नहीं कहेगा, इस प्रकार से निर्धारण कर उसने निज चोरी की वार्ता उसे कही । तत्पश्चात् जिनदास ने कहा कि- मैं तुम्हारे घर में भोजन नहीं करूँगा, मुझे भी तुम्हारे आहार की अनुयायिनी बुद्धि होगी। उसने कहा कि- चोरी के बिना जो तुम कहोगे, मैं उस धर्म को करूंगा। जिनदास ने असत्य व्रत के फल को कहा कि
एक ओर असत्य से उत्पन्न हुआ पाप और अन्य ओर संपूर्ण पाप, उन दोनों को तराजू में धारण करने पर पहला ही अधिक होगा।
शिखाधारी, मुंड, जटाधारी, नग्न और वस्त्रधारी जो तप को करता है, यदि वह भी झूठ कहता है तो चांडाल से भी निन्दनीय होता है।