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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २८४ एक दिन गुरु को नमस्कार कर काकजंघ और कोकास दोनों ने स्व पूर्व भव के बारे में पूछा । सूरि ने कहा कि- हे राजन् ! पूर्व भव में गजपुर का स्वामी ऐसा तेरा यह जैन-ब्राह्मण सूत्रधार था । उसके वचन से तुमने अनेक महल कराएँ थें । एक दिन वहाँ पर कहीं से एक कला-पात्र जैन सूत्रधार आया था । उसकी जाति आदि से निन्दा करते हुए वह जैन-विप्र सूत्रधार तेरे आगे कलाओं के मात्सर्य से चुगली करने लगा, क्योंकि कलावान्, धनवान्, विद्वान्, क्रियावान्, धन-मानवान्, राजा, तपस्वी और दाता स्व तुल्य को सहन नहीं करतें। __ हे राजन् ! तुमने भी जैन सूत्रधार को छह घड़ी पर्यंत कारावास में डाला था, पश्चात् उसको छुड़ाया । उसकी आलोचना कीये बिना ही राजा और सूत्रधार सौधर्म के सौख्य को भोगकर तुम दोनों हुए हो । जाति मद से कोकास को दासत्व मिला हैं और व्यर्थ ही उसे छह घड़ी तक धारण कर रखने से तुम दोनों को छह मास पर्यंत दुःख हुआ हैं । इस प्रकार से ज्ञानी के द्वारा कहे हुए को सुनकर और स्वपुत्र को राज्य के ऊपर स्थापित कर राजा ने रथकार के साथ में दीक्षा ली और क्रम से केवलज्ञान को प्राप्त कर दोनों ने सिद्धि-गति को प्राप्त की। कोकास की बुद्धि से धर्म में दृढ़ किया गया और कारक दर्शन से संपन्न प्रसिद्ध श्रीकाकजंघ राजा ने अतीन्द्रिय ज्ञान से पर सिद्धि गति को प्राप्त की थी। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में उन्साठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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