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________________ २८३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ को देखो, इस प्रकार से कहकर जब उसने कील का परावर्तन किया, तब निद्रालु के दोनों नेत्रों के समान सकल भी महल मिल गया । कलीदार कमल के अंदर रहे हुए भँवर के समान वहाँ वें सर्वहाहारव करने लगें । जो कि अन्य उक्ति में कहा गया है कि रात्रि व्यतीत होगी, सुप्रभात होगा, सूर्य उदय को प्राप्त करेगा, कमल रूपी लक्ष्मी हँसेगी, इस प्रकार से कोश में रहे हुए भ्रमर के विचार करते, हा ! हंत! हंत ! गज ने कमलिनी को उखाड़ दिया । इस ओर कोकास के संकेत से काकजंघ का पुत्र कनकप्रभ राजा के सुभटों को जीतकर और नगर में जाकर अपने पिता को काष्ठ-गृह से बाहर निकालकर रथकार के साथ में निज नगर में गया। स्व नियम से अधिक दूर होने के कारण से काकजंघ ने उसके राज्य को स्वीकार नहीं किया । स्व-राज्य करते हुए उसने निज भाई के साथ अपनी पत्नी के दुश्चरित्र को जानकर गांभीर्य से कुछ-भी प्रकट नहीं किया, क्योंकि मतिमंत पुरुष अर्थ-नाश, मन के संताप को, गृह में दुश्चरित्रों को, वञ्चन और अपमान को प्रकाशित नहीं करतें। इस ओर यहाँ पर स-परिवार राजा को निकालने की आशा से कमल-गृह को तोड़ने के लिए अन्य बहुत लोग कुहाड़ा आदि से घात दिला रहें थे, तब वेंराजा आदि विपरीत ही वेदना को प्राप्त करने लगें। उससे अन्य गति से रहित हुए वेंजन अवन्ती में जाकर कोकास से स्व स्वामी के जीवित भिक्षा की प्रार्थना करने लगें। उसने भी दास के समान उनके स्वामी की सेवा-कारिता को उन लोगों के प्रति कहकर और शीघ्र से उस नगर में जाकर उस भुवन को उद्घाटित कर बाहर निकाला । राजा ने भी पिता के समान आराधना कर उसे विसर्जित किया ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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