SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २७७ इच्छित गमन किया जा सकता है और आया जा सकता हैं । उसे सुनकर कुतूहल प्रिय राजा ने उसे इस प्रकार से कहा कि- तुम मेरे मार्ग में गमन-आगमन करनेवाले एक गरुड़ पक्षी का निर्माण करो जिससे कि मैं सकल भू-मंडल को देख सकूँ । उसने निर्माण किया। राजा उसके दर्शन मात्र से ही संतुष्ट हुआ और वह राजा की आज्ञा से कुटुंब सहित भी सुख पूर्वक वहाँ पर रहने लगा, क्योंकि_ नमक के समान रस नहीं हैं और विज्ञान के समान ही बांधव नहीं हैं । धर्म के समान निधि नहीं हैं और क्रोध के समान वैरी नहीं हैं। एक दिन राजा ने विष्णु के समान ही कोकास और स्त्री के साथ उस गरुड़ के ऊपर आरोहण कर आकाश मार्ग में प्रस्थान किया । विविध देश आदि का उल्लंघन करते हुए और भृगुकच्छ नगर के ऊपर जाते हुए राजा ने कोकास से उस नगर का नाम आदि पूछा । वह भी गुरुओं के मुख से पूर्व में सुनी हुई कथाओं को कहने लगा कि- इस भृगुकच्छ नगर में पूर्व में श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ने प्रतिष्ठान नगर से एक ही रात्रि में साईठ योजन का अतिक्रमण कर याग में हवन कीये जाते और पूर्व भव के मित्र ऐसे श्रेष्ठ घोड़े को प्रतिबोधित कर और उसे धर्म में स्थिर अनुरागी कर सौधर्म में सामानिक-ऋद्धि प्राप्त करायी थी । वहाँ पर तभी आकर उस देव ने जिन-समवसरण के स्थान पर जिन और निज घोड़े की मूर्ति से युक्त चैत्य और अश्वावबोध तीर्थ का स्थापन किया था । इस प्रकार विविध देशों को देखते हुए लंका नगरी को देखकर राजा ने उसका स्वरूप पूछा । तब उसने कहा कि- हे स्वामी ! यहाँ पर पूर्व में रावण हुआ था और लोक में उसकी ऋद्धि का स्वरूप इस प्रकार से सुना जाता है, जैसे कि रावण ने अपनी शय्या के पैर में नव ग्रहों को बाँधे थें । यम को बाँधकर पाताल में डाला था । उसके गृह-आंगण में वायुदेव
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy