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उपदेश-प्रासाद भाग १
देखकर उनके समीप में बैठा ।
इस ओर सूर्य के उदय प्राप्त होने पर वें चारण-मुनि 'नमो अरिहंताणं' इस प्रकार से कहकर आकाश में उड़ें। सुभग ने उस पद को आकाश - गामिनी विद्या के मंत्र के समान मानकर चित्त में स्थापित किया । एक दिन वह उसी पद को अर्हत् के समीप में पढने लगा । उस पद के ध्यान में लीन उसे देखकर श्रेष्ठी ने पूछा कि - तूंने इसे कहाँ से प्राप्त किया हैं ? उसने कहा कि- मुनि से ! सर्व वृत्तांत के कहने पर संतुष्ट हुए श्रेष्ठी ने उसे संपूर्ण नमस्कार मंत्र पढ़ाया ।
इस ओर नमस्कार की गणना करते हुए उसे क्रम से वर्षाकाल आया । मेघ के द्वारा पृथ्वी मंडल को एक समुद्र के रूप में कीये जाने पर सुभग भैंसों को लेकर वन में गया । मध्य में नदी का पूर आया । अब उसने आकाशगामिनी विद्या की बुद्धि से उसी का स्मरण करते हुए नदी में छलांग दी । अन्तराल में वह कील से वींधा हुआ मरकर के उसी श्रेष्ठी का सुदर्शन नामक पुत्र हुआ । क्रम से माता-पिता ने उसे मनोरमा नामकी श्रेष्ठी की पुत्री से विवाहित किया ।
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इस ओर सुदर्शन की कपिल नामक राजा के पुरोहित के साथ में निबिड़ प्रीति हुई थी । एक दिन पति के द्वारा कहे हुए सुदर्शन के गुणों के श्रवण से अनुरागिनी हुई पुरोहित की पत्नी कपिला कामातुर हुई सुदर्शन के महल में आकर - आज तुम्हारे मित्र का शरीर अस्वस्थ हैं, तुम शीघ्र से सुख को पूछने के लिए मेरे घर पर आओ, इस प्रकार से कहकर और उसे गुप्त गृह के अंदर ले जाकर, द्वार देकर और लज्जा को छोड़कर काम के लिए प्रार्थना की । पर- स्त्रीयों की रति में नपुंसक के समान उस श्रेष्ठी ने शील की रक्षा के लिए हे स्त्री ! मैं नपुंसक हूँ। क्यों तुम व्यर्थ ही मुझसे प्रार्थना कर रही हो ? इस प्रकार से कहकर और वहाँ से निकलकर घर पर आया ।