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उपदेश-प्रासाद
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भाग १
के जन्मों में स्वर्ण-शैल (मेरुपर्वत) को देखा था । अब नमि देवता के द्वारा प्रदत्त लिंगवाला प्रव्रज्या को ग्रहण कर वहाँ से निकला ।
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अब उस समय में अद्भुत प्रतिबोध से रञ्जित हुए इन्द्र ने अवधि से जानकर, ब्राह्मण का रूप ग्रहण कर और उसके समीप में जाकर इस प्रकार से कहा कि- हे मुनि ! तेरे नगर में बहुत लोगों का रोदन और शोक- शब्द हो रहा है और तेरी नगरी दहन की जा रही है । दया की मूलवाली प्रव्रज्या कही जाती है, इसलिए पूर्वापर से विरुद्ध तेरा व्रतीपना योग्य नहीं हैं, उससे सर्व को सौख्य सहित कर तुम्हें व्रत का आचरण करना योग्य हैं । पुनः इन्द्र ने कहा कि - हे नाथ ! यह अग्नि और वायु तुम्हारें ही आलय और अंतःपुर को जला रहे हैं। क्यों तुम इसकी उपेक्षा कर रहे हो ?
इस प्रकार से इन्द्र के द्वारा प्रेरित कीये गये प्रत्येकबुद्ध ने कहा किइन कारणों में मुझे कुछ भी नहीं हैं, उससे मैं सुख से रह रहा हूँ और जी रहा हूँ, मिथिलानगरी के दहन में मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है । सर्व भी स्वार्थ के लिए प्रयत्न कर रहे हैं और उसके बिना दुःख को प्राप्त कर रहे हैं, उससे मैं भी निर्मम चित्त से स्वार्थ को साध रहा हूँ । पुनः इन्द्र ने कहा कि- चाँदी, स्वर्ण और मणि आदि से कोश की वृद्धि कर व्रत का आचरण योग्य हैं । यह सुनकर नमि ने कहा किसदा ही कैलास के समान स्वर्ण और चाँदी के असंख्यात पर्वत हो, लोभी मनुष्य को उन पर्वतों से कुछ भी नहीं होता है क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंतिक हैं ।
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इत्यादि उत्तराध्ययन में कही हुई युक्तिओं से मुनि ने ब्राह्मण को निरुत्तरवाला किया । इस प्रकार से ही उसे अक्षोभित चित्तवाला जानकर, सत्त्व के आश्रय इन्द्र ने ब्राह्मण के रूप को छोड़कर और प्रणाम कर इस प्रकार से स्तुति की कि - अहो ! तुमने क्रोध को जीत