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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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उन्चासवा व्याख्यान अब गणाभियोग की व्याख्या की जाती हैं
जिनेश्वरों के द्वारा जनों का समुदाय वह ही गण कहा गया हैं। उसके वाक्य से निषिद्ध का भी सेवन किया जाता हैं।
गणाभियोग नामक यह द्वितीय आकार (आगार) कहा जा रहा है । उत्सर्ग पक्ष में स्थित कोई जन अभिग्रह को नहीं छोड़ते हैं।
इस विषय में यह प्रबन्ध हैं
पञ्चाल देश में जैन-धार्मिक सुधर्म नामक राजा था । एक बार गुप्त-चर ने राजा के आगे कहा कि- हे देव ! महाबल नामक चोर प्रजा को अतीव पीड़ित कर रहा हैं । उसे सुनकर राजा ने कहा किमैं वहाँ जाकर के निग्रहित करूँगा । क्योंकि
मद-भर से आलसु गज तब तक वन में गर्जना करते हैं, जब तक सिर पर पूंछ को लगाकर सिंह नहीं आता।
इस प्रकार से कहकर सैन्य समूह के भार से पृथ्वी-तल को नम्र करता हुआ उस चोर के समीप में आया । एक लीला से ही उसे जीतकर वह स्व-नगर में आया । प्रवेश के समय में मुख्य दरवाजा गिरा । वह अपशकुन हुआ, इस प्रकार से जानकर राजा वापिस लौटकर नगर के बाहर ठहरा । मंत्रीयों ने शीघ्र से वैसा ही दरवाजा कराया । इस प्रकार से दूसरे-तीसरे दिनों में भी उस दरवाजे को गिरते हुए देखकर राजा ने मंत्री से पूछा कि- हे मंत्री ! यह दरवाजा बारबार क्यों गिर रहा हैं ? मंत्री ने कहा कि- हे राजन् ! यदि अपने हाथों से ही एक पुरुष को मारकर और उसके रस से सिंचित किया जाय तो नगर-द्वार का अध्यक्ष यक्ष संतुष्ट होगा और अन्य पूजा, बलि, नैवेद्य आदियों से संतुष्ट नहीं होगा । इस प्रकार के चार्वाक पक्षीय वाक्य को सुनकर राजा ने कहा कि- मुझे इस नगर से क्या प्रयोजन हैं, जिस नगर