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________________ २२० उपदेश-प्रासाद - भाग १ भू-तल के ऊपर स्थित होकर के धनुर्वेद की कला से बाण के पीछे बाण का संधान कर आम्रवृक्ष से आम्र-राशि को संगृहीत कर स्वकला दिखायी । तथा सर्व वाक्-चातुर्य और स्व-बल भी दिखाया। तब विषय से विरक्त हुई उस कोशा ने कहा कि जलते हुए लोह स्तंभ का आलिंगन किया जाय, यह श्रेष्ठ हैं, लेकिन नरक का द्वार ऐसा स्त्री-जाँघ का सेवन उचित नहीं हैं। तथा रथकार के गर्व को नीचे करने के लिए सरसवों के पुंज में डाली हुई सूई के आगे स्थित पुष्प के ऊपर नाचती हुई कहने लगी कि आम्र फलों के गुच्छों को तोड़ना दुष्कर नहीं हैं, सरसवों के ऊपर नाचना भी दुष्कर नहीं हैं । वह दुष्कर हैं और वही महानुभावता हैं, जो वें मुनि प्रमदा (स्त्री) रूपी वन में वृक्ष के समान स्थिर हुए थे। पर्वत, गुफा, एकान्त में और वन के अंदर निवास का आश्रय करनेवालें हजारों की संख्या में जितेन्द्रिय हैं । अति मनोहर महल में और युवति-जन के समीप में वह एक शकटाल-नन्दन(स्थूलभद्रमुनि) ही जितेन्द्रिय हैं। ___ इत्यादि से उस रथकार के आगे श्रीस्थूलभद्र की प्रशंसा कर उसे प्रतिबोधित किया। विषय से विमुख हुए उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर क्रम से स्वर्ग को प्राप्त किया । वह कोशा वेश्या भी चिर समय तक जैन-शासन की प्रभावना करती हुई स्वर्ग-धाम में गयी । - निज धर्म में रक्त कोई मनुष्य कोशा के समान राजा की आज्ञा से भी धर्म को नहीं छोड़तें हैं । जो स्व-बुद्धि से अन्य जनों को प्रतिबोधित करतें हैं, वें मुक्ति मार्ग में मुसाफिर हैं ही। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में चतुर्थ स्तंभ में अडतालीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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