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उपदेश-प्रासाद - भाग १
१५१ इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में एकतीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
बत्तीसवाँ व्याख्यान अब छट्ठा विद्या-प्रभावक का स्वरूप कहा जाता हैं
मंत्र, तंत्र आदि विद्याओं से युक्त विद्या-प्रभावक संघ आदि के लिए महा-विद्या का प्रयोग करता हैं, अन्यथा नहीं ।
भावार्थ तो श्रीहेमसूरि के माहात्म्य से जाने और वह यह हैं
धंधुका नगर में मोढ-जातीय अंगदेव(चंगदेव) ने देवचन्द्रसूरि के पास में दीक्षा ली । क्रम से गुरु ने हेमसूरि नाम दिया । इस ओर पाटण में कुमारपाल के राजा होने पर हेमसूरि वहाँ आकर उदयन मंत्री से पूछा-राजा हमारा स्मरण करता है अथवा नहीं ? उदयन ने कहा- नहीं। तब सूरि ने कहा कि-हे मंत्री ! आज तुम रहस्य से राजा को कहना कि- आज तुम नूतन रानी के गृह में मत सोना । अमात्य के द्वारा वैसा कराने पर रात्रि के समय विद्युत्-पात से उसके गृह के जल जाने पर और रानी के मरण प्राप्त होने पर चमत्कृत हुए राजा ने उससे कहा- किसका यह ज्ञान हैं ? अमात्य के द्वारा सत्य कहने पर वहाँ जाकर सूरि को प्रणाम कर राजा ने कहा कि- हे पूज्य ! आप इस राज्य को ग्रहण कर मुझे अनुग्रहित करो । सूरि ने कहा
हे राजेन्द्र ! जो तुम कृतज्ञपने से प्रत्युपकार करने की इच्छा करते हो तो आत्मा के लिए हितकारी जैन-धर्म में निज मन को स्थापित करो।
राजा ने कहा- मैं भगवान् का कहा करूँगा । एक दिन राजा सूरि को साथ में बुलाकर सोमेश्वर की यात्रा के लिए गया । वहाँ शिव