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उपदेश-प्रासाद
भाग १
१५०
के दोष को प्रकटित करने पर भटों के द्वारा वें मुनि राजा के आगे ले जाये गये । धाय-माता ने उनको देखा, उसने राजा से कहा- यें तेरे पिता हैं । माता को पिता की हंतक जानकर राजा ने उसे निकाल दिया । राजा श्रावक हुआ । पिता - गुरु को आग्रह से स्व-नगर में रखा । राजा सर्व ऋद्धि से प्रति-दिन गुरु वंदन के लिए आता हैं । इस प्रकार जिनशासन की प्रभावना से प्रद्वेष को प्राप्त हुए ब्राह्मण उनके छिद्रों को ही ढूँढ रहें थें । एक गर्भवती दासी को देखकर उन ब्राह्मणों ने कहा- तुम इस साधु को कलंक दो । ब्राह्मणों के द्वारा वह धन से लोभित की जाती हुई साध्वी वेष कर राजा आदि बहुत जन के मिलने पर और विहार के लिए उद्यमी साधु के समीप में आकर उसने कहा कि - हे भगवन् ! अपर्याप्त आपके इस गर्भ को छोड़कर आपका गमन योग्य नहीं हैं । इस प्रकार से कहकर वह वस्त्र के आँचल में लगी ।
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तब मुनि ने कहा कि - हे बाले ! तुम क्यों झूठे वचन से हमको क्रोधित कर रही हो ? उसने कहा- यह झूठ नहीं हैं । तब शासन उन्नति की लब्धिवाले मुनि ने कहा- यदि यह गर्भ मेरे द्वारा किया गया हो तो रहे और यदि यह गर्भ मेरे द्वारा नहीं किया गया हो तो तेरी कुक्षि को भेदकर नीचे पड़ें। इस प्रकार से कहने पर गर्भ पृथ्वी के ऊपर गिरा । तब संभ्रान्त होकर उसने कहा- मैंने ब्राह्मणों के वचनों से इस कार्य को किया है, आप उसे क्षमा करो । काँपते हुए ब्राह्मणों ने भी मुनि के पैरों में प्रणाम किया । साधु ने शाप का संहार किया । सभी मुनि की देशना से धर्म करनें लगें और जैन-धर्म की निन्दा छोड़ दी । उत्कृष्ट तप के द्वारा कर्मों को नष्ट कर मुनि ने भी मोक्ष प्राप्त किया । हे भव्य-प्राणियों ! इस प्रकार से अद्भुत काष्ठ - मुनि के चरित्र को सुनकर यदि मोक्ष के सुख के लिए जो तुम्हारी स्पृहा हैं तो विविध तपों को कर जिन-धर्म की शोभा करो ।