________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १
१४५ समीप में प्रव्रज्या ग्रहण की । क्रम से अग्रज चौदह-पूर्वी और सूरि हुए । उन्होंने दशवैकालिक, आवश्यक आदि दस ग्रंथों की नियुक्ति की । वराह ज्ञान के गर्व से अग्रज के पास में सूरि-पद की याचना करने लगे । गुरु ने कहा- गर्व से युक्त विद्वान् को सूरि-पद नहीं दिया जाता । उसे यह पसंद नहीं हुआ । उसने पुनः ब्राह्मण वेष को ग्रहण किया । लोगों में अपनी ख्याति को फैलाने लगा कि- मैं बाल्यअवस्था से ही सदा लग्न के विचार में ही रहा हुआ हूँ। मैंने एक बार नगर के बाहर शिला के ऊपर लग्न को स्थापित किया । मैं वैसे रहे हुए उस लग्न को छोड़कर स्व-स्थान पर चला गया । जब मैं सोने लगा, तब उसका स्मरण हुआ । उसे साफ करने के लिए वहाँ पर गया । लग्न के स्थान पर मैंने सिंह देखा । फिर भी जब मैं निर्भय होकर सिंह के नीचे हाथ डालकर लग्न को दूर करने लगा, तब सूर्य ने प्रत्यक्ष होकर कहा कि- हे वत्स ! वर माँगों ! मैंने कहा- यदि प्रसन्न हो तो मुझे अपने विमान में स्थापित कर सकल ज्योतिष्क-चक्र दीखाओ ! तब सूर्य ने उसे दिखाया और चार-मान आदि कहा । उससे कृतकृत्य हुआ मैं लोगों के उपकार के लिए भ्रमण कर रहा हूँ। इस प्रकार की प्रशस्ति को सुनकर जितशत्रु ने उसे पुरोहित किया ।
वह वराह श्वेतांबरों की निन्दा करने लगा। उसे अनेक गुरुभक्त और श्रावकों ने सुनकर श्रीभद्रबाहु सूरिजी गुरु को बुलाकर नगर में प्रवेश महोत्सव करवाया । गुरु के आगमन को सुनकर वह अत्यंत मुाया । इसी बीच राजा के गृह में पुत्र उत्पन्न हुआ । वराहमिहिर ने उसकी जन्म-पत्री में राजा के समक्ष सो वर्ष आयुका प्रख्यापन किया । राजा के प्रसन्न होने पर उसने कहा- भद्रबाहु के बिना सभी जन सहर्ष आपके गृह में आये थें । हर्ष रहित भद्रबाहु को देश-त्याग ही उचित दंड हैं । राजा ने मंत्री के पास से श्रीभद्रबाहु