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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ १४१ मन्द, मूर्ख और चारित्र की कांक्षावालें मनुष्यों के अनुग्रह के लिए तत्त्वज्ञों ने सिद्धान्त को प्राकृत में किया हैं । प्रज्ञावंत के योग्य चौदह पूर्व भी संस्कृत में ही सुनें जातें हैं । इस प्रकार जिन आदि की आशातना से प्रौढ प्रायश्चित्त को प्राप्त किया है । - उसे सुनकर साधु-वेष को गुप्त कर और अवधूत का रूप कर, मौन को धारण कर तथा संयम से युक्त, संघ की अनुज्ञा से और जन की आज्ञा से ही विहार करते हुए सात वर्ष के अंत में उज्जयिनी में महाकाल - ईश के मंदिर में अधिष्ठित हुए । शिव के सम्मुख पैर देकर शिव को नहीं प्रणाम किया और नहीं वंदन किया । उससे कौतुक से भरा हुआ राजा वहाँ आकर उनसे कहने लगा- तुम शिव को वंदन क्यों नहीं करते हो ? सूरि ने कहा- जैसे ज्वर से पीडित व्यक्ति मोदक को सहन नहीं कर सकता, वैसे ही यह देव हमारे स्तवन आदि को सहन नहीं कर सकता हैं । राजा ने कहा कि - हे जटाधारी ! यह तुम क्या कह रहे हो ? तुम स्तुति करो । तब उन्होंने स्वयंभू, हजार नेत्रों के धारक, अनेक, एकाक्षर भाव-लिंग से युक्त, अव्यक्त, विश्व के लोगों को अबाधित करनेवालें, आदिमध्य और अंत से रहित तथा पुण्य और पाप से रहित उनको । इत्यादि वीर की स्तुति रूप द्वात्रिंशत्-द्वात्रिंशिका की । पश्चात् महिमा से युक्त श्री पार्श्वनाथ की स्तुति की । वहाँ कल्याण-मंदिर की ग्यारहवें वृत्त के विधान के अवसर में शिव-लिंग दो भागों में होकर झत्कार-पूर्वक अवन्ति पार्श्वनाथ का बिंब प्रकट हुआ । विस्मित हुए विक्रमार्क ने पूछा- किसने इस देव का निर्माण किया है ? गुरु ने कहाअवन्ति में भद्र सेठ और भद्रा सेठानी से उत्पन्न अवन्तिसुकुमाल बत्तीस पत्नीयों का स्वामी था । एक बार गवाक्ष में बैठे हुए उसने आर्यसुहस्ती से नलिनीगुल्म वर्णनवालें अध्ययन को सुनकर
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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