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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ १०७ जिससे कि तुम्हें इस प्रकार से कहा हैं । इस प्रकार से कहते उसके मुख को नागिल ने स्व- हाथ से ढंक दिया और कहने लगा कि - अरे बंधु ! अनंत संसार का यह कारण है, तुम इस प्रकार से मत कहो। मैं इन साधुओं के मध्य में बाल तपस्वीपने को जानता हूँ क्योंकि अनेक गुसि विषय आदि दोष के दूषितपने से । इसलिए मैं संग को छोड़कर जा रहा हूँ । सुमति ने कहा- मैं इनके संग को प्राण के अंत तक नहीं छोडूंगा । पश्चात् सुमति ने उनके पास में दीक्षा ग्रहण की। अब उनके मध्य में चार संसार में भ्रमण कर मुक्ति को प्राप्त करेंगे। उनमें से पाँचवाँ अभव्य हैं । - अब गौतम ने प्रभु से पूछा कि - हे स्वामी ! सुमति भव्य हैं ? अथवा अभव्य है ? भगवान् ने कहा कि - हे इन्द्रभूति ! सुमति भव्य है। गौतम ने पुनः पूछा- तब वह कौन - सी गति में गया हैं ? भगवान् ने कहा कि - हे गौतम! कुशील की प्रशंसा से और जिनेश्वर की अति आशातना से परमाधार्मिक देवपने से उत्पन्न हुआ है । गौतम ने कहा कि- हे भगवन् ! आगे इसका स्वरूप क्या है ? भगवान् ने कहा किहे गौतम ! उसने अनंत संसारीत्व का अर्जन किया है । फिर भी तुम उसे संक्षेप से सुनो लवण-समुद्र में गंगा - सिन्धु दोनों महा-नदीयाँ प्रवेश कर रही हुई हैं । उस प्रदेश से दक्षिण भाग में वेदिका से पचपन योजन अतिक्रमण कर वहाँ साढे बारह योजन प्रमाणवाला और साढ़े तीन योजन ऊँचा हाथी के कुंभ के आकारवाला द्वीप हैं । वहाँ काजल, केश, बादलों की पंक्ति और भ्रमर की आभाओं को तिरस्कार करनेवाली सैंतालीस गुफाएँ हैं । उन गुफाओं के अंदर भगंदर रोग के अनुकारी, जलचारी, प्रथम संघयणवालें, मद्य पीनेवालें, मांसभक्षी, मसी - कूर्चक (ब्रश) की आभावालें, दुर्गन्धी ऐसे अंतर
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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