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"सांच को आंच नहीं"
००÷ कल्पसूत्र कोई स्वतंत्र एवं मनगढन्त रचना नहीं है अपितु दशाश्रुतस्कंध का ही आठवाँ अध्ययन है ।
प्रश्न हो सकता है कि आधुनिक दशाश्रुतस्कंध की प्रतियों में कल्पसूत्र लिखा हुआ क्यों नहीं मिलता ? इसका उत्तर यही है कि जब से कल्पसूत्र का वांचन पृथक् रूप से प्रारम्भ हुआ, तब से दशाश्रुतस्कंध में से वह अध्ययन कम कर दिया गया होगा । यदि पहले से ही वह उसमें सम्मिलित न होता तो नियुक्ति और चूर्णि में उसके पदों की व्याख्या नही आती । मुनिश्री पुण्यविजयजी का अभिमत है कि दशाश्रुतस्कंध की चूर्णि लगभग सोलह सौ वर्ष पुरानी है ।
स्थानकवासी जैन परम्परा दशाश्रुतस्कंध को प्रामाणिक आगम स्वीकार करती हैं तो कल्पसूत्र को जो उसी का एक विभाग हैं, अप्रमाणिक मानने का कोई कारण नहीं प्रतीत होता । मूल कल्पसूत्र में ऐसा कई प्रसंग या घटना नहीं है जो स्थानकवासी परम्परा की मान्यता के विपरीत हो । श्रमण भगवान महावीर की जीवन झाँकी का वर्णन भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से विपरीत नहीं है । अन्य तीर्थङ्करों का वर्णन जैसा सूत्ररूप में अन्य आगम साहित्य में बिखरा पड़ा हैं, उसी प्रकार का इसमें भी हैं । सामाचारी का वर्णन भी आगम - सम्मत हैं । स्थविरावली का निरूपण भी कुछ परिवर्तन के साथ नन्दीसूत्र में आया ही है । अत: हमारी दृष्टि से कल्पसूत्र को प्रामाणिक मानने में बाधा नहीं हैं । ( जैन आगम साहित्य मनन और भीमांसा पृ. ४४. ५४५)
कल्पसूत्र के पहले सूत्र में 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे.... और अंतिम सूत्र में.... भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ' पाठ है । वही पाठ दशाश्रुत स्कन्द के आठवें उद्देशक (दशा) में हैं । यहाँ पर शेष पाठ को 'जाव' शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है । वर्तमान में जो पाठ उपलब्ध है उसमें केवल पंचकल्याण का ही निरूपण है जिसका पर्युषणा कल्प के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं । अतः स्पष्ट है कि पर्युषणा कल्प इस अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र था । कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाहु हैं । इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है
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