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60 “सांच को आंच नहीं" (0902 फूंक देना, पंखा वीजना, हवा खाने बैठना (आचा. अ. १. उ. ७ नियुक्ति गा. १७०) वगैरह ऐसी चेष्टाओं के निषेध में वायुकाय की रक्षा को मुख्य प्रयोजन बताया है।
से भिक्खू वा २ उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसग्गं वा करेमाणे पुब्बामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ति तओ संजयामेव उससिज्जा वा जाव वायनिसग्गं वा करेज्जा ॥ (आचा. श्रु. २. चू. १ अध्य. २, उ. ३ सूत्र १०९) . इस सूत्र के द्वारा मुँह आदि की - क्रियाओं में होती वायुकाय की विराधना में बोलने की क्रिया को नहीं बताया है। - इस प्रकार बोलने आदि में वायुकाय की सामान्यरूप से आनुषांगिक विराधना होती रहने से आगमों में उसकी रक्षा को मुंहपत्ति के प्रयोजन में नहीं बताया है, जबकि योगशास्त्र में बोलने आदि के समय में भी वायुकाय की शक्य यतना को भी प्रयोजन में गिना हो, ऐसा समाधान किया जा सकता है । बाकि तो ज्ञानी कहें वहीं प्रमाण । कुछ भी हो, हाथ में रही मुंहपत्ति से भी ये सब प्रयोजन सिद्ध होते ही है, तथा आगम निर्दिष्ट शरीर की प्रमार्जना आदि प्रयोजन भी हाथ में रखी मुंहपत्ति से ही सिद्ध हो सकते है, बांधने से नहीं।
- दुसरी बात अगर आगम में वायुकाय की ही रक्षा हेतु मुंहपत्ति बांधने को कहा होता और अगर उसीलिए स्थानकवासी संत आदि उसको बांधते है और उसका उपदेश देते है तो फिर मुंहपत्ति केवल मुंह के आगे ही क्यों बांधी जाती है ? उसे तो नाक के उपर तक बांधनी चाहिए क्योंकि नाक से श्वास आदि द्वारा सतत वायुकाय की विराधना होती है, अत: समझ सकते है कि
_* टिप्पण :- (१) से पुवामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमाज्जिय... सिज्जासंथारयं सईज्जा । (आचा.श्रु३,चू.१, अध्य.२, उ.३, सूत्र १०८) (२) 'हथगं संपमज्जित्था तत्थ भुंजिज्ज संजए'
(दश.सू.अध्य.५,उ.१,गा. )
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