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4600 “सांच को आंच नहीं" 1960-- की विवक्षा ही कारण है । जिसकी स्पष्टता प्रश्न १३ के जवाब में भी कर चुके है।
प्रश्न-२८ का उत्तर :- आगमों की प्रामाणिकता के लिये मूर्तिपूजक समाज में मतभेद नहीं हैं, केवल संख्या की धारणा में ही भेद है जो पूर्वाचार्यों की विवक्षा के आधीन है तथा इन संग्रहकारों का अन्य संख्या के 'संग्रह के लिए विरोध भी नहीं है ।
प्रश्न-२९ का उत्तर :- १० प्रकीर्णक के सिवाय को आगम नहीं मानने के आक्षेप ही गलत है, जिसका खुलासा इसी बात को लेकर पुछे प्रश्न १३ के उत्तर में दिया है । रचयिता के नाम नहीं मिलने पर भी आप भी उपांगों को मानते ही है तो अतिप्राचीन सुविहित परंपरा से प्राप्त इन पयन्नाओं में क्या हर्ज है, जिनके नाम एवं अतिदेश नंदीसूत्र में भी है।
प्रश्न-३०, ३१, का उत्तर :- प्रश्न के जवाब प्रश्न १४ के उत्तर में आ जाते है। एक ही प्रकार का प्रश्न बार-बार पुछकर केवल ग्रन्थ के कलेवर को बढाना कितना उचित है ? पाठकगण स्वयं निर्णय करें!
दुसरी बात इस प्रश्न में आपने हरिभद्रसूरिजी को प्रकांड विद्वान, ज्ञानी, प्रभावक संतशिरोमणि, युगप्रधान आचार्य इन बिरुदों से नवाजा है, तो इन्ही युगप्रधान आचार्य द्वारा रचित पंचवस्तुक ग्रन्थ में पूर्वश्रुत में से उद्धृत ‘स्तवपरिज्ञा' प्रकरण दिया है, वह तो आपको भी मान्य ही होगा उसमें जिन-प्रतिमा की पूजा को विस्तार से निर्दोष साबित किया है। तथा इन्ही आचार्य द्वारा रचित पंचाशक ग्रंथ का इसी पुस्तिका में दिया हुआ श्लोक मननीय है
'देहादिणिमित्तंपि हु जे, कायवहम्मि तह पयस॒ति जिणपूआकायवहम्मि, तेसिमपवत्तणं मोहो ॥४५॥
श्रावक प्रज्ञप्ति (श्लोक ३४९) अगर नहीं मानते हो, तो युगप्रधान पूर्वाचार्यों के सपूत कैसे कहलाओगे ?'
१० पूर्वधर पू. उमास्वातिजी रचित तत्त्वार्थ सूत्र तो चारों फिरकों में मान्य हैं, उसमें तो मूर्तिपूजा वगैरह की बातें भी नहीं है, तो भी आप उसे ३२
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