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________________ गुरुवाणी-३ २५३ ज्ञान-पञ्चमी रत्नाकरसूरि महाराज एक गाँव में एक आचार्य थे। वहाँ कोई व्यापारी श्रावक व्यापार करने के लिए आया। श्रावकों का नियम होता है कि श्रावक जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ देवगुरु के दर्शन करने के लिए अवश्य जाता है। श्रावक का नाम सुधन था। व्याख्यान सुनने जाता है। आचार्य महाराज देशना देते हैं। विशिष्ट ज्ञानी हैं। इस कारण देशना भी रस युक्त होती है। सुधन वहाँ रुक जाता है। सामायिक लेकर बैठा है। आचार्य महाराज प्रतिलेखना प्रारम्भ करते हैं। आचार्य महाराज के पास में हीरा माणेक की एक थैली थी। प्रतिलेखना करते हुए उस थैली को भी खोलकर अच्छी तरह से देखते हैं? कुछ कमी-पेशी तो नहीं थी। फिर उस पोटली को बांधकर तिजोरी में रख देते हैं । यह सुधन विचार करता है कि यह ऐसा क्यों? ऐसे ज्ञानी महात्मा के पास यह क्या? आचार्य महाराज उसको उपदेश माला के श्लोकों का अर्थ समझाते हैं। उसमें एक श्लोक आता है, उस श्लोक का सारांश यह होता है कि सब अनर्थों का मूल धन है। यह वाक्य सुधन के गले नहीं उतरता है। आचार्य महाराज अनेक उदाहरण - दृष्टान्त देकर समझाते हैं किन्तु छ:-छ: महीने तक समझने पर भी सुधन के गले में यह बात नहीं उतरती है। आचार्य महाराज अत्यन्त ज्ञानी थे अतः विचार करते हैं कि शास्त्र की यह बात इसके गले क्यों नहीं उतरती। विचार करते हुए उन्हें सद्ज्ञान हुआ कि अरे, मेरे पास ही हीरा आदि है। मेरे जीवन में जब तक आचरण में इस गाथा का रहस्य नहीं आएगा तो फिर उसका दूसरे पर कैसे प्रभाव पड़ेगा? अतः दूसरे दिन जिस समय सुधन आया उसी समय सुधन के देखते-देखते ही हीरा, मोती इत्यादि का चूरा कर उसको राख की कुंडी में फेंकने लगे। सुधन कहता है - अरे, आप यह क्या कर रहे हैं? आचार्य महाराज कहते हैं - तुझे उस गाथा का अर्थ समझा रहा हूँ।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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