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________________ ज्ञान- पञ्चमी २५१ गुरुवाणी - ३ ही सुख की खोज करते हैं । सुख तो आत्मा में है। पहले तो लाखों करोड़ो रुपये इकट्ठे करने के लिए दौड़धाम मचाते हैं और दुःख को इकट्ठा करते हैं, और फिर इन लाखों करोड़ों रुपये के रक्षण करने में भी दुःखी इस प्रकार दुःख को ही न्योता देते हैं । परिग्रह संज्ञा के कारण ही हम दौड़ते हैं और इसी अंधकार को दूर करने की समान प्रवृत्ति भी करते हैं ! यह सब धन के पीछे दौड़ते हैं। क्या खाने को समाप्त हो गया है इसलिए दौड़ रहे हैं ? नहीं इकट्ठा करने के लिए दौड़ रहे हैं । केवल स्वयं के अहंकार का पोषण करने के लिए ही । इन सब कचरों को दूर करने लगोगे तो घर साफ सुथरा हो जाएगा। दीपावली का तप करके प्रसन्न होते हो या खाजे पुड़ी, मिठाई खाकर राजी होते हो? तप में सुख की कल्पना भी नहीं । खाने में सुख की कल्पना है। पटाखें चलाने में आनन्द मानते हैं। बेचारे निर्दोष पक्षी बैठे हुए हैं उनको उड़ाने में आनन्द आता हैं । यह सब कुछ अज्ञान जनित ही सुख है न ! ज़ेब काटने वाला नए वर्ष के पहले दिन किसी की जेब काटता है तो वह मानता है कि आज मुझे मंगलकारी शकुन हुआ है। यह सब सुख की भ्रांति है। सम्यक् ज्ञान प्रकाश है। एक अमेरिकन भारत में आया। चारों तरफ वह कुछ खोज रहा था। एक मानव ने उससे पूछा- भाई क्या खोज रहे हो? क्या भारत में कोई कारखाना खड़ा करना है ? नहीं भाई, मेरे पास तो अपार धन है, मैं तो केवल शांति की खोज कर रहा हूँ । I have plenty of money, but not the peace of mind.. समस्त क्रियाओं का मूल श्रद्धा है..... यदि सम्यक्त्व न होगा तो कोई भी क्रिया फलदायिनी होगी क्या? तप-अहिंसा आदि में सम्यक्त्व होने पर ही वे क्रियाएं सफल होती है । पूजन पढ़ाते हैं, किन्तु श्रद्धा रहित होकर पढ़ाते हैं । तो क्या फल मिलेगा?
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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