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________________ २५० ज्ञान-पञ्चमी गुरुवाणी-३ सारी रात वे लोग यही प्रवृत्ति करते रहे। सुबह होने पर वे लोग मानने लगे कि हमने सारे अंधेरे को ढूंढ-ढूंढकर बाहर फेंक दिया है। यह उनकी दैनिक प्रवृत्ति थी। ऐसे समय में उनके बड़े लड़के का विवाह हुआ। घर में बहू आई। संध्या होते ही सब लोग झाड़ और टोकरी लेकर शुरू हो गये। बहू को भी साथ तो देना पड़े न! इसलिए वह भी उसमें सम्मिलित हो गई। बहू ने विचार किया कि इन मूल् को यह भी ज्ञान नहीं है कि अंधेरे को कैसे निकाला जाए। प्रकाश होने पर ही अंधेरा चला जाता है.... दूसरे दिन संध्या समय उसने घर के बड़ों को कहा कि आज तुम लोग निश्चिन्त होकर सो जाओ मैं अकेली ही अंधेरे को भगा दूंगी। सब ने कहा - नहीं! तेरे अकेले से इसको नहीं फेंका जा सकता। बहू ने भी जिद्द पकड़ी कि मैं किसी को इसमें हाथ नहीं बटाने दूंगी। घर का सारा कामकाज बहू को ही करना होता है। तुमने आज तक सब-कुछ किया, अब मेरा कर्तव्य है कि आप लोगों को मैं शान्ति प्रदान करूं । बड़ी कठिनाई से सबको तैयार किया। साथ में यह एक शर्त भी रख दी कि तुम्हारे में से कोई भी जागता नहीं रहेगा। सभी को सिर ढककर सोना होगा। क्योंकि मैं नई बहू हूँ, चूँघट निकालकर काम करना मुझे पसंद नहीं है। इसलिए आप लोगों को सिर ढककर ही सोना है। उस चद्दर को दूर नहीं करना है । सब लोगों को सुला दिया और स्वयं भी सो गई। सुबह होते ही वह सबसे पहले उठी और सबको जगाया। उठो, अंधेरे को बाहर निकाल दिया है। सब लोग उठे, आश्चर्य हुआ, बहू को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। इस प्रकार दो-तीन दिन बीत जाने पर उसने सबको समझाया कि इस अंधेरे को बाहर नहीं निकाला जा सकता.... यह तो जब प्रकाश आएगा तब स्वयं ही चला जाएगा। यह दृष्टान्त हम पर भी लागू होता है। हम भी दुःख को दूर फेंक कर सु:ख प्राप्त करने के लिए व्यर्थ प्रयास करते हैं, और दुःख में
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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