________________
२२९
गुरुवाणी-३
परहित-चिन्तक के साथी सर्प को कहा कि तू मुझे डंक मार दे, मेरा काम पूर्ण हो गया है। सर्प डंक मारने के लिए तैयार नहीं हुआ। स्वयं के साथी को कैसे डंक मारे? मानव की अपेक्षा सर्प बढ़ गया। आज तो मानव ही स्वयं के स्वजन सम्बन्धियों को पहले संकट में डालता है। घर में प्रसंग हो तो सबसे पहले टेड़ा कौन चलता है, निकट में तो स्वजन-सम्बन्धि ही होते हैं। कई वर्षों पूर्व की बात निकालकर कठिनाई खड़ी कर देते हैं जब कि इस तिर्यंञ्च योनि में रहा हुआ सर्प भी स्वयं मालिक के कहने पर भी डंक मारने को तैयार नहीं होता है। बहुत विनंती करने के बाद भी जब सर्प तैयार नहीं हुआ तब संन्यासी सर्प को कहता है - जो तुमने मुझे डंक नहीं मारा तो मेरे गुरु की सौगन्ध है । बेचारा अब वह क्या करे? गुरु की सौगन्ध को बिना मन से पालने के लिए तैयार होता है। उसने जरा सा मुँह खोला, संन्यासी ने तत्काल ही अपनी अंगुली उसके मुँह में डाल दी। सर्प ने डंक तो नहीं मारा किन्तु अंगुली के स्पर्श से ही उसका जहर शरीर में फैलने लगता है। स्वयं का अन्तिम समय निकट जानकर स्वयं ही सर्प को सुरक्षित स्थान पर छोड़ आता है और समाधि लगाकर बैठ जाता है। अन्त में इच्छित मृत्यु को प्राप्त कर परमात्मा में लीन हो जाता है। धर्म की संज्ञा में डूब जाओ
कितने ही मूढ जीव मैथुनसंज्ञा में डूबे हुए हैं और परिग्रह संज्ञा में तो सारा विश्व ही डूबा हुआ है। मनुष्य को एक ग्रह लग जाता है, तो भी वह तौबा-तौबा पुकार उठता है लेकिन जिसको परि अर्थात् चारों तरफ से ग्रह लग गए हों अर्थात् परिग्रह की ममता हो तो उसका क्या नहीं होगा। इन चार संज्ञाओं के विचारों की प्रवृत्ति में ही मनुष्य व्यस्त है। किन्तु जिनके विचारों में तुम निरन्तर जी रहे हो, वह सब तो यही रहने वाला है। शास्त्रकार कहते हैं कि धर्म की संज्ञा में जीओगे तो अन्य सभी संज्ञाओं से तुम्हे मुक्ति मिल जाएगी।