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परहित-चिन्तक
कार्तिक वदि ८
संज्ञा में डूबा हुआ जगत
सम्पूर्ण विश्व चार संज्ञाओं में डूबा हुआ है। धर्मसंज्ञा प्राप्त करने की किसी को आतुरता ही नहीं है और जिसके पास धर्म संज्ञा है, वह भी बाहरी है। जीवन-स्पर्शी देखने को नहीं मिलती है। जगत् के जीव जी रहे हैं, परन्तु जीने-जीने में अन्तर है। बेचारे बहुत से मनुष्य आयुष्य पूर्ण करने के लिए ही जीते हैं। इनके सामने कोई आदर्श नहीं होता और न ही होती है गति, कितने ही खाने के लिए, कितने ही पीने के लिए और कितने ही लड़ने के लिए ही मानो जी रहे हों। कितने ही आहार संज्ञा में और कितने ही भय संज्ञा में जी रहे हैं। सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा बड़े मनुष्यों को अधिक भय रहता है, क्योंकि उनको सत्ता आदि की लालसा रहती है। कितने ही रोग के भय में जीवित रहते हैं, कितने ही मौत के भय में भी जीते हैं। मानो सारी जिन्दगी व्यर्थ ही कर दी हो। पापमय प्रवृत्ति में ही जो व्यस्त रहते हैं उनको ही मौत का भय है। जो भगवान के नाम में मग्न रहते हैं उनको मौत का भय नहीं लगता। सन्त पुरुष तो स्वयं आगे से मौत को निमन्त्रण देते हैं। शिवभक्त संन्यासी
एक शिवभक्त संन्यासी थे। जीवन में अच्छी साधना की थी। उनके पास में एक सर्प भी था। उसको कण्ठ में अथवा हाथ पर लपेट कर रहते थे। कुछ वर्ष बीत गए। संन्यासी को ऐसा आभास हुआ कि बस मुझे अधिक जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है। मेरा काम पूर्ण हो गया है। अब मृत्यु की चाहना है । कहाँ मृत्यु से दूर भागते हुए आज के मानवी और कहाँ मृत्यु को स्वयं आगे से आमंत्रण देने वाले सन्त....! संन्यासी ने सदैव