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________________ २२६ कृतज्ञता गुरुवाणी - ३ बैलगाड़ी में कोई महिला जा रही थी । उसके पास खाने की सामग्री थी । महिला ने देखा, यह कोई उत्तम पुरुष है। स्वयं भोजन करने के लिए बैठी उस समय कुमारपाल को भी भोजन करने के लिए बुलाया । पूर्व समय में यह एक रिवाज था कि मनुष्य अकेला भोजन नहीं करता था। किसी को भी देकर के ही भोजन करता था । गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है - ते त्वघं भुञ्जते पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् । अर्थात् जो अपने लिए पकाते हैं वे पाप का भक्षण करते हैं । हम तो पहले स्वयं खाओ और पीछे स्वजनों को खिलाओ... समझ गए न ! कुमारपाल को दही का करम्बा खिलाती है। अब, जब कुमारपाल राजगद्दी पर आता है, तब उस महिला के हाथ से राजतिलक करवाता है । उस महिला का नाम श्रीदेवी था और कुम्हार को भी बुलाता है... जिन-जिन लोगों ने उनकी सहायता की थी, उन सबको वह बुलाता है और योग्य भेंट देकर उनका सम्मान करता है। कैसे गुणग्राही और कैसे कृतज्ञी ! कुमारपाल महाराजा में एक तो कृतज्ञता का गुण था और दूसरा गुण था सदाचार का, ये दोनों गुण महान् थे । कुम्भार टुकड़े की आयम्बिल शाला इस कलियुग में भी इस गुण की बदौलत बहुत से लोग महान् बन गए हैं। सामान्य मनुष्य भी इस गुण के बल पर महान् बनता है। मुम्बई में कुम्भार टुकड़े में इस समय बहुत बड़ी आयम्बिल शाला चल रही है। जिसके सहयोग से यह चल रही है उस भाई का भी यह लम्बा इतिहास 1 है । उस शाला में यह भाई प्रतिदिन भोजन करने के लिए आता था, आयम्बिल करने के लिए नहीं । क्योंकि वह भाई अत्यन्त गरीब था । सुबह-शाम खाने की चिन्ता रहती थी । खाने के लिए क्या करना यह एक बड़ा प्रश्न था । पेट करावे वेठ । मनुष्य सब कुछ सहन कर सकता है किन्तु भूख के दुःख को सहन नहीं कर सकता। इसीलिए यह कहावत है कि - बुभुक्षितः किं न करोति पापम् । अर्थात् भूखा मनुष्य कौनसा पाप करने के लिए तैयार नहीं होता । इस भाई को एक उपाय सूझा। उसने
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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