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कृतज्ञता
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गुरुवाणी - ३ पड़ता है। शिष्य को तो केवल गुरु का विनय ही करना है। जबकि गुरु को तो कृतज्ञ भाव से शिष्य की तमाम जिम्मेदारी धारण करनी पड़ती है, उसको पढ़ाने की और संक्षेप में उसके तन तथा मन की । इस लोक में उसे सुख-शांति प्राप्त हो और परलोक में भी सद्गति प्राप्त हो इसकी जिम्मेदारी गुरु पर ही रहती है।
यहाँ ही स्वर्ग है
शिष्य को पढ़ाते समय गुरु यदि वार्तालाप में बैठ जाए, तो यह नहीं चलेगा। विशेष कारण हो तो अलग बात है । प्रतिदिन उसको स्वाध्याय की खुराक देनी ही चाहिए । पण्डितों के पास अध्ययन करने के लिए छोड़ दिया, इससे हमारी जिम्मेदारी पूर्ण हो गई ऐसा समझकर बैठ नहीं सकते। वह क्या करता है? वह क्या अध्ययन करता है? प्रतिदिन की खबर रखनी पड़ती है । उसका उत्साह बना रहे इसलिए प्रोत्साहन भी देना पड़ता है । यदि इस कार्य में गुरु असावधानी रखे तो वह गिर जाता है । गुरु को शिष्य की ओर कृतज्ञ भाव और शिष्य को विनय के द्वारा भावभक्ति पूर्वक स्वयं का कर्त्तव्य निभाने का होता है । जिस प्रकार शिष्य को गुरु के आशीर्वाद की अपेक्षा है, उसी प्रकार गुरु को भी शिष्यों की शुभेच्छा की आवश्यकता है । मनुष्य तपती हुई धरती पर आसन बिछाकर शान्ति से बैठ सकता है क्या ? नहीं! शीघ्र ही ऊँचा- नीचा होने लगता है । जहाँ ठण्डक हो वहाँ कैसी शान्ति से बैठता है । वैसे ही शिष्य भीतर से सन्तत्प हो.... उद्विग्न हो तो गुरु प्रसन्न मुद्रा में कैसे रह सकते हैं ! नहीं रह सकते हैं! जो परस्पर कर्त्तव्य निभाते हैं उनके लिए तो यहाँ पर ही स्वर्ग है। वह स्वर्ग तो बहुत दूर है, किन्तु यदि कोई पूछे कि पृथ्वी पर स्वर्ग कहाँ है? तो कहना पड़ता है कि जाओ साधु-साध्वियों के उपाश्रय में, वहाँ स्वर्ग जैसी शान्ति और ठण्डक है । कैसा शान्त वातावरण होता है । मनुष्य संसार के ताप से तपकर उपाश्रय में आता है । आने के साथ ही उसे कैसी ठण्डक का अनुभव होता है। जिस प्रकार कोई तमतमाती हुयी गर्मी में से ए.सी. में आता है तो, कैसी ठण्डक का अनुभव करता है ! तुम्हारे
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