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कृतज्ञता
कार्तिक वदि ७
शास्त्रकार महाराज धर्मरूपी रत्न कितना दुर्लभ है, यही हमें समझा रहे हैं। वे हमें नई दुनिया में ले जाते हैं। इस दुनिया में मोटरबंगला, मान-प्रतिष्ठा और वैभव आदि की महत्ता है। जबकि महापुरुषों की दुनिया ही अलग है। उनकी दुनिया में ये सब वस्तुएं तुच्छ है। वहाँ केवल गुण की महत्ता है। किसके पास कितने गुण हैं? धन और बंगला परलोक में काम नहीं आते। वहाँ तो केवल गुण ही काम आते हैं। जिसमें जितने गुण होंगे, उन्हीं गुणों से हमारा कल्याण होने वाला है। धन या सत्ता अपनी इच्छानुसार नहीं मिलती। तुम यदि प्रधानमन्त्री की कुर्सी चाहते हो तो क्या वह मिल जाएगी। आज कुर्सी के लिए अपाधापी होती है न! लेकिन तुम अपनी इच्छानुसार उसे प्राप्त नहीं कर सकते किन्तु गुणों को जितना भी प्राप्त करना चाहो, उन्हें प्राप्त कर सकते हो या नहीं?
सिंहनी का दूध मिट्टी के पात्र में नहीं रह सकता। मिट्टी के पात्र में रखोगे तो वह पात्र ही टूट जाएगा.... उसको रखने के लिए तो स्वर्ण पात्र ही चाहिए। उसी प्रकार धर्मरूपी सिंहनी के दूध के लिए हमें स्वर्ण पात्र बनना पड़ेगा। यदि हमें जीवन को सुधारना है, भावी जीवन को सुन्दर बनाना है तो अभी से ही सद्गुणों को जीवन में उतारना प्रारम्भ करना होगा। अभी कृतज्ञता गुण की बात चल रही है। विनय और कृतज्ञता इन दोनों गुणों को जीवन में अभ्यास से परिपक्व करने की आवश्यकता है। जितना महत्त्व विनय का है उनका ही महत्त्व कृतज्ञता के गुण का है। शिष्य बनना सहज है
___आज हमें भी बहुत कुछ समझने का है। शिष्य बनना सहज है, किन्तु गुरु पद धारण करने में तो अनेक जवाबदारियों को वहन करना