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________________ कृतज्ञता २१६ गुरुवाणी - ३ रहने दे, उस समय में तुमने उस धर्मशाला में मुझे सर्वप्रथम आश्रय दिया था, अतएव उस कारण से एक लाख रुपया मैं तुम्हें भेंट में देता हूँ और तुमने मुझे जाते हुए मेरे ऊपर दया करके दो रुपये दिए थे, इसलिए आपको मैं दो लाख रुपया और देता हूँ । आप स्वीकार करके मुझे ऋण मुक्त करिए। मुनीम तो पागल ही हो गया । कहाँ २००-५०० रुपये का वेतन और कहाँ एक साथ इतनी बड़ी रकम.... दो रुपये के बदले में दो लाख रुपये! कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य के जीवन में रहा हुआ एकआधा गुण भी मनुष्य को कितना महान् बना देता है । इस कृतज्ञता नाम गुण ने भी सेकसरिया को कहाँ का कहाँ पहुँचा दिया? सद्गुण एक ऐसी वस्तु है जो प्रत्येक जन्म में साथ देती है। सद्गति को देने की जिम्मेदारी भी इस सद्गुण नाम के गुण में है। अच्छी से अच्छी जमीन, बढ़िया से बढ़िया खेत और सुन्दर से सुन्दर खेती की हो तथा वर्षा भी अच्छी हुई हो तो खेती कैसी होती है? सवाई से सवाई होती है या नहीं? होती ही है! बस इसी के समान यह बात है कि सद्गुणों के साथ धर्म का आचरण किया जाए तो उसका प्रभाव भी अचिन्त्य होता है। उपकारी के उपकार को सर्वदा याद रखना चाहिए। कृतज्ञ मनुष्य ही विश्व में शिखर पर पहुँचते हैं। दूध पर जो मलाई की परत बन जाती है, वह कितनी गाढ़ी और वजनदार होती है । वैसे तो वजनदार वस्तु तैरती नहीं बल्कि डूब जाती है। जबकि मलाई की परत तो दूध के ऊपर ही रहती है, क्योंकि दूध के समस्त परमाणु मलाई की थर को ऊपर रखते हैं । उसी प्रकार गुणवान मनुष्य को समाज ही ऊँचा लाता है, किन्तु हमारे में सबसे बड़ी कमी यह है कि हम सामने वाले व्यक्ति के उपकार को तुरन्त ही भूल जाते हैं । इसमें क्या बड़ी बात है, उसने ऐसा किया तो? यह तो उसका कर्त्तव्य था, उसको करना ही पड़ता न! हम ऐसी ही बातें करते हैं ।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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