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कृतज्ञता
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गुरुवाणी-३ लिखना आता था और न पढ़ना आता था। जैसे-तैसे दो दिन बीत जाने के बाद मुनीमजी ने कहा - भाई! मैं तुमको रखकर क्या करूँ? तुम्हें न तो लिखना आता है और न ही पढ़ना आता है, इसलिए मुझे तुम्हे छोड़ना पड़ेगा। यह लो दो दिन का वेतन और ये दो रुपये मैं अपनी जेब में से देता हूँ क्योंकि इस बड़ी नगरी में तुम कहाँ जाओगे और क्या खाओगे? दूसरी नौकरी खोजते हुए भी तुम्हे समय लगेगा, उस समय यह दो रुपये तुम्हारे काम आएंगे। निराश होकर वह वहाँ से निकला। कहाँ जाऊँ? जैसे-तैसे कुछ दिन बिताता है। किसी दुकान के चबुतरे पर या फुटपाथ पर समय बिताता है। धीमे-धीमे हतभाग्य का बादल छंटता जाता है और पुण्य आगे आता जाता है । क्रमशः वह बढ़ते-बढ़ते शेयर बाजार का राजा बन गया। चारों तरफ उसका नाम चलने लगा। वह गोविन्द में से गोविन्दराम सेकसरिया बन गया। दो के स्थान पर दो लाख
इधर सर्वप्रथम जिस धर्मशाला में वह ठहरा था वह धर्मशाला जीर्ण-शीर्ण हो गई। धर्मशाला के मुनीम को धर्मशाला की मरम्मत कराने के लिए चन्दा इकट्ठा करने की शुरुआत की। गोविन्दराम का नाम सुनकर वह उनके पास आया। धर्मशाला फण्ड के लिये बातचीत की.... गोविन्दराम तो मुनीमजी को देखते ही पहचान गया। उन्होंने अपने मुनीम को बुलाकर कहा कि इन मुनीमजी को एक लाख रुपया दे दो। मुनीम को एक लाख रुपया शब्द सुनते ही आश्चर्य चकित हो गए। जिसको हजार, पाँच हजार के दान के लिए भी भाई, पिताजी करना पड़ता था वहाँ एक साथ ही इस जमाने में एक लाख रुपये का दान करने वाला यह कौन है? मुनीम तो फटे नेत्रों से उस सेठ को देखने लगा। उसी समय गोविन्दराम सेकसरिया ने कहा - मुनीमजी! तुम्हे याद है? कुछ वर्षों पहले मैं तुम्हारी धर्मशाला में फटेहाल मारवाड़ी लड़के के रूप में आया था। तुमने मुझे आश्रय दिया था। वह लड़का अन्य कोई नहीं मैं स्वयं था। जहाँ कोई खड़ा भी नहीं