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________________ १०० दीर्घदृष्टि गुरुवाणी-३ मिला हो वह यदि भाग्य में न हो तो चला जाता है। तुम तुम्हारे भाग्य पर भरोसा रखो। उल्टा-सुल्टा करके लोगों को किसलिए लूट रहे हो। तुम्हारे भाग्य में लिखा हुआ धन कहीं जाने वाला नहीं है। विधाता को कहीं से भी लाकर तुम्हें देना ही पड़ेगा। खोखलाधर्म अगर मनुष्य दीर्घ दृष्टि से विचार करें तो उसकी समझ में आ सकेगा कि यह शरीर क्षण भंगुर है, नाश होने वाला है। आज का समय बहुत भयंकर है। किस पल में और किस क्षण में आदमी चला जाएगा, कह नहीं सकते? पुण्य का फल सबको चाहिए। गाड़ी, बगीचा, बंगला और समृद्धि चाहिए, किन्तु ये वस्तुएं जिसके आधार पर मिलती है उस पुण्य को प्राप्त करने का मनुष्य नहीं सोचता है। कहावत है - "पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः।" अर्थात् पुण्य फल की कामना करता है, किन्तु मानव पुण्य कर्म नहीं करता है। जन्माष्टमी आती है तब मन्दिरों को रोशनी से सजाया जाता है। बड़े-बड़े वरघोड़े निकालते हैं, किन्तु जीवन में झांककर देखें तो हमने जन्माष्टमी को जुआ खेलने की अष्टमी बना रखी है। वास्तव में उद्यापन करना हो तो उस दिन समस्त व्यसनों को तिलाञ्जली दे दो। पान, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, शराब आदि को बन्द कर दो। भगवान् की आज्ञा को सिर पर चढ़ाओ तब ही वास्तविक जन्मोत्सव मनाया, ऐसा कह सकते हैं। यहाँ तो गला फाड़कर कहते हैं - 'हाथी घोड़ा पालकी जय कनैया लाल की' किन्तु जीवन में कभी कृष्ण के द्वारा बताए हुए मार्ग को जानने की कोशिश नहीं की है। आचरण करना तो बहुत दूर की बात है। अपने यहाँ भी गला फाड़कर चिल्लाते हैं - 'गुरुजी अमारो अन्तर्नाद, अमने आपो आशीर्वाद' किन्तु आशीर्वाद लेना हो तो अच्छे काम करो। हमारे पास आओ धर्म को समझो किन्तु निकट तो आना नहीं है और आशीर्वाद लेना है। बाजार के बीच में बड़े ऊँचेऊँचे सुरो में गला फाड़कर कहते हैं, किन्तु गुरुजी के निकट आकर स्वयं के व्यसनो को, अवगुणों को दूर करने का प्रयास नहीं करते।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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