SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ गुरुवाणी-२ पर्युषणा - द्वितीय दिन जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ हुआ। मन्दिर बनकर तैयार हो गया, किन्तु थोड़े ही दिनों बाद अचानक समाचार मिले कि मन्दिर में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई हैं। समाचार देने वाले को सोने की जीभ ईनाम में दी गई। किसी ने कहा - मन्त्रीश्वर, यह कैसे? ऐसे अनिष्ट समाचार देने वाले को आपने इतनी बड़ी बक्शीश दी। मन्त्रीश्वर ने कहा - मेरे जीते-जी मुझे यह समाचार मिले हैं इसीलिए इसका जीर्णोद्धार मैं पुनः करवाऊँगा। मेरे मरने के बाद पीछे कुछ होता तो! मन्त्रीश्वर स्वयं शत्रुजय आए। शोध-खोज की। शिल्पकारों ने कहा - भमती में हवा भर जाने से ऐसा हुआ है। भमती भर दीजिए। बाहड़ ने कहा - भमती के बिना बनाइये। शिल्पकारों ने कहा - मन्त्रीश्वर! जो बिना भमती के मन्दिर बनाया जाए तो आपकी वंशवेल नहीं चलेगी। बाहड़ ने कहा - वंशवेल भले न रहे, वंशवेल से मेरा उद्धार होने वाला नहीं है, मन्दिर से मेरा उद्धार होगा। वंश-परम्परा में कोई कुपुत्र पैदा हो गया तो मेरी इकहत्तर पीढ़ी को डुबा देगा। जबकि परमात्मा के दर्शन से मेरी इकहत्तर पीढ़ी तर जाएगी। भमती बूर दी गई। आज भी देखो, दादा के मन्दिर के बाहर का भाग कितना पोला दिखाई देता है और अन्दर का गर्भगृह कितना छोटा लगता है। सुन्दर मन्दिर बनकर तैयार हो गया। विक्रम संवत् १२१३ में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिजी के करकमलों से विशाल महोत्सव के साथ इस मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई। इस प्रकार शचुंजय तीर्थ का चौदहवाँ उद्धार बाहड़ मन्त्री ने करवाया। इस उद्धार कार्य में बाहड़ ने एक करोड़ साठ लाख रुपये खर्च किए थे। सैकड़ों वर्ष के बाद आज भी यह मन्दिर उन्नत सिर के साथ खड़ा है। सैकड़ों साधर्मिक इसका आलम्बन लेकर तर रहें हैं । इसकी नीव में साधर्मिकों का शुद्ध प्रेम भरा हुआ है। मन्दिर बाहड़ मन्त्री का अवश्य है किन्तु प्रतिमाजी वस्तुपाल-तेजपाल की है। यह कैसे? वस्तुपाल-तेजपाल.... __वस्तुपाल और तेजपाल पाटण के निवासी थे। उनकी माता का नाम कुमारदेवी और पिता का नाम आसराज था। आसराज स्वयं मन्त्री
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy