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________________ गुरुवाणी-२ पर्युषणा-प्रथम दिन दिन एक तेजस्वी पुत्ररत्न का जन्म हुआ था। उनका नाम हीरजी रखा गया था। अधिकांशतः माता-पिता के संस्कारों की छाया बालक में आती ही है। फलस्वरूप हीरजी भी धर्मवृत्ति वाले बने। दुर्भाग्य से छोटी अवस्था में ही हीरजी के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। हीरजी की तीन बहनें थी। उनका विवाह पाटण में हुआ था। माता-पिता की छत्र-छाया जाने के बाद हीरजी का आधार बहनें बनी। बहन उनको पाटण में ले आई। विक्रम संवत् १५९५ में पाटण की पवित्र धरती पर पूज्य दानसूरिजी महाराज चौमासे के लिए पधारे। हीरजी भी धर्माराधन में लग गये। धीमेधीमे धर्मरंग का असर होने लगा। आचार्य महाराज के साथ गाढ़ सम्पर्क भी बना। संसार से विरक्त हुए। बहन के समक्ष दीक्षा की अभिलाषा प्रकट की। बहिन ने अपने छोटे भाई हीरजी को अनेक प्रकार से समझाया, किन्तु हीरजी अपनी भावनाओं में अडिग रहे । अन्त में बहन से अनुमति प्राप्त कर विक्रम संवत् १५९६ कार्तिक वदि २ के दिन चतुर्विध संघ के समक्ष उपकारी गुरुदेव पूज्य श्री दानसूरिजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण. की और हीरजी से हीरहर्षमुनि बने। १३ वर्ष की बाल्यावस्था में ही श्रमण बन गये थे। परमकृपालु गुरुदेव की विशेष कृपा और आशीर्वाद से समस्त शास्त्रों के अभ्यास में प्रवीण बने। देवगिरि में न्याय और तर्कशास्त्र का अभ्यास पूर्ण किया। अभ्यास पूर्ण कर पूज्य गुरुदेव के पास आये। पूज्य गुरुदेव ने संवत् १६०८ में नाडलाई मारवाड़ में हीरहर्ष को उपाध्याय पद प्रदान किया और विक्रम संवत् १६१० पौष सुदि १० के दिन सिरोही में आचार्यपद से अलंकृित किया। उस समय संघ में ऐसा उत्साह जाग्रत हुआ कि पुण्यवान व्यक्ति के पुण्य-प्रभाव से संघ ने एक करोड़ रुपया खर्च किया। इस प्रकार हीरसूरिजी महाराज का उदयकाल प्रारम्भ हुआ। चारों ओर हीरसूरिजी महाराज की कीर्ति फैल गई। किसी समय में किसी ने राजा के कान में भरा कि 'यह हीरसूरिजी महाराज बालकों को फंसा कर साधु बना रहा है।' राजा कान के कच्चे होते ही हैं। अतः उन्होंने
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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