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पर्युषणा - प्रथम दिन
गुरुवाणी - २ गिरी । रानी आदि समस्त जलकर खाक हो गये । कुमारपाल ने विचार किया - अहो ! इस महापुरुष ने मुझे जीवनदान दिया है। आचार्य की तरफ कुमारपाल का बहुमान भाव जागृत हुआ और वह आचार्य महाराज के दर्शन करने के लिए आया । धीमे-धीमे उन दोनों का परिचय गाढ़ से प्रगाढ़तर बनता गया। आचार्य भगवन् के वचनामृत के पान से उसे पदार्थों की नश्वरशीलता समझ में आई । जो मनुष्य कर्मशूर होते हैं वे ही धर्मशूर होते हैं। सच्चा ज्ञान होने पर वह कुमारपाल नियमों के प्रति ऐसा हठाग्रही बन जाता है कि वह प्राणान्त के समय भी अपने नियमों को नहीं छोड़ता है। आचार्य भगवन् मर्यादा में रहते हुए उसको बारह व्रत अंगीकार करवाते हैं । जो १८ देशों का स्वामी हो उसको व्रत स्वीकार करना कितना कठिन होता है । तुम देश नहीं, ग्राम नहीं, गली - महोल्ला नहीं, केवल अपने घर के राजा हो तब भी क्या एक नियम के व्रत को भी स्वीकार कर सकते हो? अरे! गुटका नहीं खाना यह सामान्य सा नियम भी जो कि तुम्हारे आरोग्य और जीवन के लिए अत्यन्त लाभदायक है। हमारा तो कुछ लेना-देना नहीं, क्या तुम उसको छोड़ने के लिए तैयार हो ? महाराजा कुमारपाल जब नन्दी रचना के समक्ष व्रत ग्रहण करने के किए तैयार हुए उस समय में लाखों की उपस्थिति थी। ऐसे महाराजा व्रत ग्रहण करते हैं वह प्रसंग कितना भव्य और शालीन होगा? व्रत ग्रहण के समय महाराजा कुमारपाल विह्वल होकर अनवरत रुदन करने लगते हैं तो लोग पूछते हैं महाराज! आप क्यों रो रहे हो? उस समय महाराजा ने क्या कहा ? उनका उत्तर आप जानना चाहते हो? राजा ने कहा- मेरे जीवन के सत्तर वर्ष पानी में गये। ऐसे सुन्दर व्रत होने पर भी मैं आज तक उन्हें स्वीकार नहीं कर सका। दूसरी ओर मुझे हर्ष के आंसू आते हैं, वे यह सूचित करते हैं कि इस ढलती अवस्था में भी यह अमूल्य चीज मेरे हाथ में आई । हमें किसी दिन रोना आता है क्या? अरे ! रोने की बात तो दूर रही किन्तु चित्त में भी कभी पश्चात्ताप होता है? हम तो एक छोटा सा नियम भी लेने के लिए तैयार नहीं होते हैं।
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