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अक्रूरता
गुरुवाणी-२ पाँचवां गुण अक्रूरता है।
धर्म करने वाला श्रावक क्रूरता रहित होना चाहिए अर्थात् कृत्रिम भावों/बनावटी भावों से दूर रहना चाहिए। क्रूर परिणामी आत्मा धर्म की साधना किस प्रकार कर सकता है? क्योंकि धर्म का मूल ही अहिंसा है। क्या नीव के बिना मकान टिक सकता है? आज बहुत से प्राणी इस प्रकार के देखने में आते हैं कि वे तपस्या तो खूब करते हैं किन्तु उनका क्रोध धमधमाता रहता है। यह देखकर दूसरे लोग कहा करते हैं, क्या इसी को तप कहते हैं? इसकी अपेक्षा तो, नहीं करते तो अच्छा है। हमें तप की अनुमोदना करके पुण्योपार्जन करना चाहिए, जबकि उसके स्थान पर निंदा करके पाप के भागीदार बनते हैं, जिससे धर्म की निंदा होती है। तपस्या तो कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए होती है, उसके स्थान पर धर्म के स्वरूप को नहीं समझने वाले जीव कषायों की वृद्धि करते हैं। भतीजे द्वारा काका की परीक्षा ....
एक वृद्ध था। वह धार्मिक वृत्ति वाला होने पर भी स्वभाव से अत्यन्त क्रोधी था। घर में और संघ में सब लोग उनसे दूर ही रहना पसन्द करते थे। कोई उनसे बातचीत नहीं करता था। घर में जब वह भोजन करने बैठता था तब नीरव शान्ति छा जाती थी। वह वृद्ध एक समय पालीताणा तीर्थ की यात्रा करने गया। दादा के दर्शन करके वह जब नीचे उतरा उस समय उसे कोई महात्मा मिले। महात्मा ने कहा - भाई! दादा की यात्रा कर ली, कोई नियम ग्रहण किया या नहीं? वृद्ध ने उत्तर में कहा कि मैंने कोई नियम नहीं लिया है। उसी समय पास में खड़े हुए किसी स्वजन ने महात्मा के कान में कहा - साहब! ये स्वभाव से बहुत क्रोधी हैं, ये क्रोध कम करें ऐसा कुछ करिए। महात्मा ने उस वृद्ध को समझाकर क्रोध नहीं करने की प्रतिज्ञा करवाई। वृद्ध यात्रा करके जब घर लौटे और दूसरे दिन जब भोजन करने के लिए बैठे। उसी समय छोटी बहू के हाथ से घी का पात्र गिर गया, घी फैल गया। बहू तो कांपने लगी, सोचा ! अभी ससुरजी