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________________ अक्रूरता गुरुवाणी-२ सामान्यतः जगत् के मनुष्य केवल दो दिनों को आनन्द के दिवस मानते हैं - एक शादी का दिन और दूसरा दिवाली का दिन। शादी के दिन वह राजा होकर घूमता है 'वर राजा कहलाता है' किन्तु दूसरे ही दिन से वह दास बन जाता है। दीपावली के दिन छोटे बालक से लेकर वृद्धजन तक समस्त प्राणी आनन्द में झूलते रहते हैं। जबकि स्वामी रामतीर्थ कहते है - हर रोज एक शादी है, हर रोज मुबारक बादी है। मेरे लिए तो प्रतिदिन ब्याह है और प्रतिदिन दिवाली है। सर्वदा आनन्द ही आनन्द है, ऐसा मानने वालों के लिए आनन्द के खोज की आवश्यकता नहीं पड़ती, केवल दृष्टि परिवर्तन की आवश्यकता है। वक्तृत्व की अपेक्षा श्रोतृत्व महान् कला है .... - वर्तमान में व्याख्यान केवल सुनने की वस्तु बन गई है किन्तु वह केवल श्रवण की चीज नहीं है अपितु जीवन में उतारने की वस्तु है। जिस प्रकार दवा, पानी और भोजन ये कोई देखने की वस्तुएं नहीं हैं। सामने स्वादिष्ट वस्तुओं का थाल भरा हुआ हो और हम उसे केवल देखते ही रहें तो क्या हमारी भूख दूर हो सकती है? दवा की पर्ची को बांचने मात्र से क्या रोग दूर हो सकता है? नहीं, व्याख्यान को जीवन में उतारने से ही जीवन में बदलाव आ सकता है। महापुरुष केवल एक देशना मात्र से तर जाते थे। वक्तृत्व की अपेक्षा श्रोतृत्व महान् कला है। व्याख्यान सुनते-सुनते वृद्धावस्था को प्राप्त हो गए किन्तु स्वभाव में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया। अखा कवि कहते हैं - तीरथ करतां त्रेपन थयां, जपमालाना नाका गया। कथा सुणी सुणी फूट्या कान, तोये न आव्यूं ब्रह्म ज्ञान। अथवा सांभल्युं कशुं ने समज्या कशें, आंखनु काजल गाले घस्युं। ऐसी ही हमारी स्थिति है। धर्म के साथ सम्बन्ध कैसा हो?.... जिन्दगी में बहुत ओलियाँ की, बहुत उपवास किये, बहुत से आसन घिस डाले तब भी हमारे कषाय और विषय कितने घटे? धर्म
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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