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________________ अक्रूरता भादवा वदि ७ दौड़त दौड़त दौड़त दौड़ियो.... अध्यात्मयोगी पूज्य आनन्दघन जी महाराज ने धर्मनाथ भगवान् के स्तवन में कहा है - दौड़त दौड़त दौड़त दौड़ियो। जगत् के समस्त प्राणी दौड़ रहे हैं- कीड़ी से लेकर हाथी तक, साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक के साधनों द्वारा, कोई रेल से, कोई मोटर से और कोई प्लेन से दौड़ रहा है। महापुरुष कहते हैं कि ऐसे दौड़ते हुए मनुष्यों को उपदेश किस प्रकार दिया जा सकता है? और उनको दिया हुआ उपदेश किस प्रकार स्थायी हो सकता है? व्याख्यान में आते हैं तब भी उनकी दृष्टि घड़ी के कांटे पर लगी रहती है। आज के मानव की जिन्दगी घड़ी के कांटे पर ही टिकी हुई है। उठने के साथ ही इसकी भागदौड़ प्रारम्भ हो जाती है। केवल मन की ही नहीं तन की भी दौड़ लगाता है। मनुष्य पैसे के पीछे पागल होकर दौड़ रहा है। बाह्य जगत् के सुखों को प्राप्त करने के लिए मिथ्या प्रयत्न करता रहता है किन्तु वास्तविक सुख तो उसकी आत्मा में ही है। भौतिक आनन्द प्राप्त करने के लिए वह टी.वी., रेडियो आदि के कार्यक्रमों में व्यस्त रहता है। क्रिकेट के खेल में किसी ने छक्का लगा दिया वहाँ हर्षोल्लास में चीख उठता है किन्तु जब हार जाता है तो उसकी खुशी गायब हो जाती है। यह वास्तविक नहीं है। सच्चा आनन्द तो स्थिर होता है, स्थाई होता है। गरीब हो या राजा सबको आनन्द की चाहना है। इसीलिए मनुष्य अवकाश के दिन अथवा किसी पर्व के दिन आनन्द की तैयारी में डूब जाता है। वह आनन्द के प्रसंगों की कामना/कल्पना करता रहता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके जीवन में वास्तविक आनन्द नहीं है। सच्चा आनन्द तो बाह्य पदार्थों में नहीं किन्तु अन्दर/आत्मा में ही छिपा हुआ है किन्तु मनुष्य की दृष्टि बाहर ही भटकती रहती है वह अन्तर जगत् की ओर नहीं देख पाता है।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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