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________________ ११८ दया गुरुवाणी-२ घड़ी खरीदी। कुछ महीने बीत गये। दूसरी डिजाईन और मॉडल वाली घड़ी को तुमने देखा। उस पुरानी घड़ी को निकालकर नई डिजाईन के मॉडल वाली घड़ी खरीद ली। कुछ महीने और बीत गए। ऐसे तो हजारों प्रकार के डिजाईन वाली घड़ियाँ बाजार में आती रहती हैं किन्तु जो व्यक्ति शास्त्र के शब्दों से रंगा हुआ होकर विचारशील बन जाता है तो वह क्या विचार करता है? वह उस समय यही विचार करता है कि मुझे तो समय देखने का ही काम है ! घड़ी के नये-नये मॉडल के साथ मेरा क्या प्रयोजन है? इस प्रकार जगत के समस्त पदार्थों को देखता है और चिन्तन करता है तो उसकी आसक्ति घटती जाती है अर्थात् वैभव विलास घटता जाता है। मौज-शौक में उलटे मार्ग से नष्ट होती हुई सम्पत्ति बच जाती है। आज लाखों रुपये गलत मार्ग पर खर्च हो रहे हैं। इसीलिए मनुष्य को गलत व्यापार करके धन खड़ा करना पड़ता है। जीवन में चार वस्तुएं याद रखो- चलेगा, मेरे इच्छानुकूल है, मेरे शरीर के अनुकूल है, मेरी रुचि के अनुकूल है। कोई भी वस्तु अनुकूल हो उसके योग्य बनना सीखो। यह . नहीं चलेगी ऐसा दिमाग से निकाल दो।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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