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________________ लज्जा गुरुवाणी-२ में उसे मार्ग दिखाई देने लगा, फलतः वह स्खलनारहित सीधे मार्ग पर सपाट चलने लगा। गुरु ने सोचा - अब ठोकरें क्यों नहीं लग रही है? शान्त होकर अपने शिष्य से पूछा - अब कैसे बराबर चल रहे हो? ठोकरें क्यों नहीं लगती? शिष्य ने उत्तर दिया - अब मार्ग साफ दिखाई दे रहा है। आचार्य संभले, सोचा और पूछा - क्या आँख से देख रहे हो या ज्ञान से? शिष्य ने कहा - ज्ञान द्वारा । गुरुदेव चौंके और पूछा – प्रतिपाति ज्ञान से अथवा अप्रतिपाति ज्ञान से? शिष्य ने कहा - गुरुदेव! आपकी कृपा से न जाने वाले अप्रतिपाति ज्ञान से अर्थात् केवलज्ञान से। उसी समय प्रात:काल हो गया। शिष्य के मस्तक पर बहते हुए रुधिर के दाग देखकर उनका मन पश्चात्ताप में डूब गया। आत्मा पश्चात्ताप करती हुई आगे बढ़ी। अरे, मैंने केवली की आशातना की। स्वयं को पुनः धिक्कारने लगे। धिक्कार है मेरे पाण्डित्य को, धिक्कार है मेरे इन दूषित परिणामों को और धिक्कार है मेरे दीर्घ श्रमण पर्याय को। मैं क्रोध रूपी पिशाच के वशीभूत हो गया। देखो न, आज के नवदीक्षित साधु ने ही अपना जीवन संवार लिया। इस प्रकार महावैराग्य में डुबकी लगाते हुए गुरुदेव ने भी केवलज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार लज्जालु श्रेष्ठिपुत्र ने संयम-जीवन को स्वीकार किया और सम्यक् प्रकार से आराधना करके केवलज्ञान प्राप्त किया। लजा तो असंख्य पापों में से बचाने वाली है और केवलज्ञान तक पहुँचाने वाली सब गुणों की माता है। मनुष्य को सिद्धि नहीं प्रसिद्धि चाहिये, दर्शन नहीं प्रदर्शन चाहिये।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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