________________
११२
लज्जा
गुरुवाणं'-२ अच्छी तरह दिखाई नहीं देता है, फिर भी आगे का रास्ता तू देखकर आ। विनीत शिष्य उठा और तत्काल ही कुछ दूरी तक मार्ग का निरीक्षण कर आया। गुरु और शिष्य दोनों उस मार्ग पर चले। अंधेरा सघन होने लगा। मार्ग भी परिचित नहीं था और गुरु महाराज को भी कम दिखाई देता था, इसलिए पग-पग ठोकरे खाने लगे। आचार्य का संज्वलन क्रोध उछाल खाने लगा। अरे! तू ऐसा ही मार्ग देखकर आया था? ऐसा कहते हुए हाथ में रहे हुए दण्ड द्वारा तत्काल ही मुण्डित सिर पर तड़ातड़ मारने लगे। बारम्बार ठोकरें लगने से आचार्य का क्रोधावेग भभक उठा और शिष्य के सिर पर दण्ड का प्रहार पुनः-पुनः करने लगे। सिर से रक्त की धारा बहने लगी तथापि विनयी शिष्य मन में विचार करता है - अरे रे, मैंने इस आचार्य महात्मा को कैसे संकट में डाल दिया? ये तो अपने स्वाध्याय ध्यान में तल्लीन थे। मैंने ही इनको विकट परिस्थिति में डाल दिया। क्या करूँ? एकाएक विचार स्फुरित हुआ। उसने गुरु महाराज से निवेदन किया - गुरुदेव! आप मेरे कंधे पर बैठ जाइये, जिससे आपको तकलीफ न होगी। कंधे पर बिठाकर चलता है किन्तु अंधेरा होने के कारण एवं उबड़-खाबड़ रास्ता होने पर भी वह संभल-संभल कर पग उठाकर चलता है किन्तु झटका तो लगता ही है। कंधे पर बैठे हुए गुरु महाराज को तकलीफ होने के कारण वे अत्यधिक क्रोधित होते हैं । इधर लज्जालु विनयी शिष्य मन में विचार करता है कि प्रातः काल होने पर मैं गुरु महाराज की इतनी अच्छी सेवा करूँगा कि उनकी सारी थकान उतर जाएगी। ऐसी सुन्दर विचारधारा में वह आगे बढ़ता जाता है। उसके स्थान पर हम होते तो? किसी ने एक भी कटु शब्द कह दिया तो हम उसे चार कटु शब्द सुनाते। शाब्दिक प्रहार को भी हम सहन नहीं कर सकते । वह कैसा गुणवान शिष्य था! गुरु को कठिनाई में डाल दिया। इस पश्चात्ताप की अग्नि ऐसी प्रज्ज्वलित हुई कि उसके समस्त कर्मरूपी ईंधन जलकर स्वाहा हो गये। अब उसे निर्मल केवलज्ञान प्राप्त हो गया। ज्ञान के प्रकाश