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________________ १०७ गुरुवाणी-२ स्वार्थी संसार उत्तर दिया - मेरा स्वामी एक लम्बे अरसे से बाहर प्रवास पर गया हुआ है। काम विह्वल होकर मैंने अन्य पुरुष के साथ समागम करने का विचार किया था किन्तु इस दोहे से मेरा अतमन जाग उठा, उसी खुशी में मैंने यह हार प्रदान किया। महावत को बुलाकर जब उससे पूछा गया कि तूने रत्न का अंकुश क्यों प्रदान किया? महावत कहता है - मुझे अमुक शत्रुराजा ने मनोवांछित धन देकर कुचक्र में फँसा लिया था कि मैं राजा का पट्टहस्ती उसको प्रदान कर दूं। मैं इसी उलझन में था कि मैं क्या करूँ! किन्तु इस दोहे के द्वारा मेरा अन्तर जाग उठा और मैंने यह रत्न का अंकुश उसे प्रदान कर दिया। अन्त में मन्त्री से पूछा गया कि तुमने कंकण क्यों प्रदान किए? मन्त्री ने उत्तर दिया कि मुझे एक राजा ने आपको मारने के लिए इच्छानुसार धन देने का कहा था। मैं विचारों के झंझावात में सोच रहा था कि आपको मारूं या न मारूं? किन्तु इस दोहे से बोध पाकर मैं इस विषम अकार्य से बच गया। अन्त में सभी प्रतिबोध पाकर खुदग कुमार के पास प्रव्रज्या/दीक्षा ग्रहण करते हैं। खुदग कुमार गुरु के पास आकर क्षमा याचना करते हैं और प्रायश्चित्त लेते हैं। गुरु महाराज खुदग कुमार की दिल खोलकर प्रशंसा करते हैं। इस दाक्षिण्य गुण से दीर्घ काल तक प्रव्रज्या का पालन कर अन्त में मुक्ति सुख के भोक्ता बनते हैं। जो दाक्षिण्य गुण नहीं होता तो अनिच्छा पूर्वक लम्बे समय तक संयम-जीवन का पालन भी नहीं करता। एक व्यक्ति ने कितने ही आत्माओं को तार दिया। जीवन में यह गुण अत्यन्त आवश्यक है। किसी पर्व दिवस में हम चाहे कुछ भी न करते हों उस समय कोई मनुष्य आकर कहता है - भाई ! आज तो बड़ा दिन है पूजा करनी ही चाहिए, अमुक तपस्या भी करनी ही चाहिए। उस समय हमारे हृदय में यह दाक्षिण्य गुण होगा तो हम आँख की शरम से भी उक्त कार्य को करेंगे। इस प्रकार धर्म के योग्य श्रावक को दाक्षिण्य गुण से युक्त होना चाहिए। विशेष का निर्माण सामान्य से होता है।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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