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तपाराधना
गुरुवाणी-२ विशिष्टता देखने को मिलती है कि जहाँ पर्व दिनों में हम खाना-पीना छोड़ देते हैं और मौज-मस्ती भी छोड़ देते हैं। बहुत से भाग्यशाली छोटे पर्वो में कम भाग लेते है किन्तु इस पर्युषण में तो प्रत्येक संघ और प्रत्येक व्यक्ति भाग लेता ही है। भले ही वर्ष में किसी भी दिन नवकारसी भी न करता हो किन्तु इन आठ दिनों में तो कुछ न कुछ अवश्य ही करता है। यह तप आहार संज्ञा तोड़ने के लिए ही होता है किन्तु आज के युग में तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य आहार संज्ञा की बढ़ोतरी कर रहा है। पारणे में देखो तो पच्चीस-तीस प्रकार की वस्तुएं। उत्तर पारणे में देखो तो विविध प्रकार की अनेक वस्तुएं । एक उपवास करना हो तो उत्तर पारणे में इतना अधिक ढूंस-ठूस कर खाते हैं कि मानो दूसरे दिवस की भी पूर्ति कर रहे हों। उसके फलस्वरूप आरोग्य सुधरने की अपेक्षा बिगड़ जाता है। उपवास के पूर्व दिवस ही जिस प्रकार ढूंस-ठूस कर खाते हैं वह भोजन शरीर के लिए सजारूप बन जाता है और पारणे के दिन कोई चीज कमी-बेशी हो जाए तो हम आपे से बाहर हो जाते हैं। तप तो समता से करने का होता है। इच्छारोधे संवरी परिणति समतायोगे रे अर्थात् इच्छा-रोधन से संवर प्राप्त होता है और उसकी परिणति से समता योग प्राप्त होता है। चैत्य-परिपाटी....
श्रावक का पाँचवाँ कर्त्तव्य है चैत्य-परिपाटी। चैत्य अर्थात् जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा। जिनेश्वर देव हमारे अनन्य उपकारी हैं। पूर्व वर्णित चार कर्तव्यों का उपदेश भी तीर्थंकर देवों ने ही दिया है। बहुत से लोग ऐसा कहते हैं कि हमें प्रभु भक्ति ही करनी चाहिए। जिन-मन्दिर के निर्माण में हम विश्वास नहीं रखते। केवल अनुकम्पा के आधार पर यह निर्माण नहीं चल सकता। गरीबों को दान देना, अस्पताल में बीमारों की सेवा करना आदि अनुकम्पा के धर्म, आचरण योग्य होते हैं। इनका जैन शास्त्रों ने निषेध नहीं किया है किन्तु यह अनुकम्पा धर्म का उपदेश