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________________ अक्षुद्रता गुरुवाणी-१ खर्च करो किन्तु अपना नाम मत लगवाना । भगवान् के नाम के अतिरिक्त किसी का भी नाम न तो अमर रहा है और न रहेगा। स्वामिवात्सल्य की प्रथा .... एक युग में मनुष्य ऐसा सत्त्वशाली था, कि कोई भी कुछ भी लेने को प्रस्तुत नहीं होता था, किन्तु आज धैर्य और औदार्य दृष्टिगत नहीं होता। मनुष्य कहता है- हमें किस प्रकार से दान धर्म करना चाहिए। इसीलिए नवकारसी, स्वामिवात्सल्य आदि की प्रथा प्रारम्भ हुई। नवकारसी वांदने के लिए कैसा भी करोड़पति क्यों न हो वह आता है और उसी प्रमाण में धर्म कार्य में धन का व्यय करता है। आज तो यह सत्त्व इस युग में से निकल गया है। सबसे पहले श्रावक क्या विचार करता है, खाने का अथवा खिलाने का? भोग का अथवा त्याग का? शालिभद्र ने पूर्वभव में दरिद्री अवस्था में किसी भी दिन खीर नहीं देखी थी। फिर भी जब उसके हाथ में खीर का भाजन आया तो उसने क्या विचार किया? जानते हो न? गुरु महाराज को (अर्पण) वहोराकर बाद में खीर खाऊ। थाली पर बैठते हुए तुम्हारे हृदय में किसी भी दिन इस प्रकार का विचार आता है? क्योंकि हमारे हृदय में गुरुओं के प्रति वैसी सद्भावना नहीं है। गंभीरता का फल .... शालिभद्र को उस खीरदान का ऐसा विशेष फल क्यों मिला? क्योंकि उसने खीर अर्पण अवश्य की, किन्तु उसके विचारों में गंभीरता थी, इसीलिए उसने अपनी माता को भी नहीं कहा कि माँ मैंने खीर गुरु महाराज को वहोरा दी है। इस गंभीरता-गुण के कारण ही उसको इतना बड़ा फल प्राप्त हुआ। सम्पत्ति का प्रदर्शन .... एक सेठ थे। उसने अपने जीवन में अपार सम्पत्ति कमाई। तलघर के कमरों को उसने सोने चांदी से भर दिया। उसके हृदय में ऐसी उत्सुकता जाग्रत हुई कि मैं इसका भेद किसको बताऊं कि मेरे पास इतनी
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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