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सूत्र संवेदना-५ ___ यह गाथा बोलते समय अनुपम सौन्दर्ययुक्त प्रभु के मुखकमल को स्मृति में लाकर, साधक सोचे कि,
"जिसका बाह्य रूप ऐसा है, उसका अंतरंग स्वरूप कैसा होगा ? यदि इस रूप को देखने-जानने और मानने का यत्न करूं तो मैं भी इस स्वरूप को
निश्चित प्राप्त कर सकूँगा।” गाथा : येषामभिषेक-कर्म कृत्वा, मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः । तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः।।२।। अन्वय: येषाम् अभिषेक-कर्म कृत्वा हर्षभरात् मत्ताः सुरेन्द्राः नाकं सुखं तृणमपि नैव गणयन्ति ते जिनेन्द्राः प्रातः सुखाय सन्तु ।।२।। गाथार्थ :
जिनका अभिषेक करके हर्ष से मत्त हुए देवेन्द्र स्वर्ग के सुख को तृणवत् भी नहीं मानते, ऐसे जिनेश्वर परमात्मा प्रातःकाल में शिव-सुख देनेवाले हों ।।२।। विशेषार्थ :
तीर्थंकरनामकर्मरूप उत्कृष्ट पुण्य प्रकृतिवाले जीवों का जन्म होते ही सौधर्मेन्द्र का आसन काँपने लगता है । इस कंपन द्वारा ६४ इन्द्र
और सभी देवों को प्रभु के जन्म का ज्ञान होता है । हर्ष से पुलकित हुए देव और देवेन्द्र दैविक सुखों का त्याग करके प्रभु का जन्माभिषेक करने दौड़ पड़ते हैं और मेरुपर्वत के ऊपर जाकर उत्तम सामग्री और उत्तम भावों से प्रभु का जन्माभिषेक करते हैं ।